भाषा-साहित्यलेख

क्या कबीर संत नहीं थे : कबीर पुण्य जयंती के संदर्भ में एक विचार


कबीरदास पहँचे हुए महात्मा, सच्चे समाज सुधारक थे । उन्होंने हिंदू, मुस्लिम धर्मों की मूढ़ांधता को, बाह्याडंबर को खंडन किया था । वे पढ़े – लिखे नहीं थे । लेकिन अपनी कर्मठता से आचार्यत्व का चिंतन उनका था । वे कथनी और करनी पर बल देते थे । प्रेम और निर्गुण उपासना उनका था । पांडित्य के संबंध में और प्रेम की महानता के बारे में स्वयं कबीरदास ने अपने दोहे में उद्घाटित किया है कि “पोथी – पोथी पढ़ी – पढ़ी जगमुआ पंडित न होय । ढ़ाई अक्षर प्रेम का पढ़ै सो पंड़ित होय ।।” उनके कयी पद ‘गुरू ग्रंथ साहिब’ में संकलित हैं । आम जनता की जुबान पर उनके दोहे अमरत्व को प्राप्त किया है । कबीर पर यह आक्षेप भी आया है कि वे संत नहीं थे । इस पर विचार करना है तो पहले संत शब्द पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है । तुलसी दास संत के संबंध में कहते हैं कि “जड़ – चेतन, गुन – दोषमय विश्व कीन्ह करतार। संत – हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि विकार ।” इस दोहे से यह स्पष्ट होता है कि जो भी इंसान चेतनामूलक होकर अच्छाई को ग्रहण करता है वही संत है । तुलसीदास ने संत की तुलना हंस पक्षी से की है । जिस तरह हंस पक्षी दूध और पानी में दूध को ग्रहण कर पानी को छोड़ देता है वैसे ही सज्जन अच्छाई और बुराई में अच्छाई ग्रहण कर बुराई को छोड़ देता है । संत का अर्थ भी यही है कि सत् + जन अर्थात अच्छा आद्मी है । अच्छा आद्मी कौन हो सकता है; लोक मंगलकारी भावना में जो सतत चिंतन करता है और अपने आचरण के बल पर खड़ा रहता है, समता – ममता, सहानुभीति, मानवता, जैसे मानवीय गुणों से आभूषित रहता है वही अच्छा इंसान हो सकता है । संत होने का मतलब सबसे दूर वैराग्य की भावना में सर्वसंग परित्यागी होना असंगत है । यह बात कबीरदास जैसे संत के साथ विचार नहीं किया जा सकता कि ये महान विभूति अपने व्यवसाय पर जुड़े होकर आदर्शमयी जिंदगी की रचना की है । यह विवाहित थे, पारिवारिक जिम्मेदारी उस पर थे, इस जिम्मेदारी को निभाना उसका परम कर्तव्य था । उसका जीवन ऐसा ही रहा कि पारिवारिक जीवन में रहते हुए भी अपने मन को साधना में लगाये थे । मूढ़ाचारों का खंड़न करते हुए सामाजिक जागृति लाने का भरसक प्रयास उसने किया है । गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए उसने साधन मग्न थे, साधना में संपन्नता प्राप्त कर जनमानस के अधिष्ठाता बन गये थे । लोक भाषा में अपनी वाणी के द्वारा जातिगत, वर्गगत, वर्णगत भेदभावों को खंडन किया है । उनका चिंतन क्रांतिकारी का है । इस्लाम और ब्राह्मणवाद के धर्मांधता एवं मूढ़ परंपराओं के विरूद्ध एक आँदोलन चलाने वाले हैं । आम आदमी की निरंतरता की बात उन्होंने की है । डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने अपने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ ग्रंथ में राधाकृष्णन जी के वक्तव्य को जिक्र करते हुए लिखा है कि ” आध्यात्मिक अनुभूतियाँ केवल संसार – त्याग और वैराग्य से ही नहीं आ जातीं । उन्हे प्राप्त करने का मार्ग विश्व – सेवा का भी कार्य है । “जिस जीवन में सेवा – भावना, यज्ञ और आत्म त्याग की प्रचुरता है, उसी के माध्यम से आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति होती है । वर्षों की एकांत साधना के बाद बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई, किंतु बुद्ध का शेष जीवन सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों में ही व्यतीत हुआ । महायान – धर्म का तो सिद्धांत ही है कि मुक्ति पुरूष में भी दु:खी मानवता के लिए दया का भाव शेष रहता है ।” दुनिया में कयी संत ऐसे थे जो अपने परिवार को न्याय नहीं कर पाये । अपने परिवार को अंधेरे में डालकर संसार में आध्यात्मिक ख्याति अर्जित की । कबीर संतों से भिन्न इसलिए है कि उनका विचार समतामूलक समाज की स्थापना करना है । प्रो. टी.वी कट्टीमनी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि ” कबीरदास तमाम भारतीय भाषाओं को जोड़ने का प्रयास किया है । ज्ञान परंपरा के साथ आम जनता की परंपरा , लोक परंपरा, गाँव परंपरा का समाज कबीर के साथ खड़ा है।” भारत की मूल कल्पना है कि ईश्वर सर्व व्यापी है, सर्वांतर्यामी है । लेकिन हमारे समाज़ में वर्ण – जाति, वर्ग की बीमारी धीमक की तरह खा रही है । कबीर ने पशुवध का विरोध किया है । कबीरदास एक साहस का नाम है । उनका विचार परलोक का नहीं इसी लोक का है । उन्होंने यह बताया है कि व्यक्ति का निर्णय कर्मों के अनुसार होता है न कि जन्म के आधार पर । सैकड़ों वर्षों के अंध विश्वासों को जनता के नसों से निकाल देने का प्रयास किया है । उन्होंने जोर से आवाज़ दी कि राम और रहीं में कोई अंतर नहीं है । मूर्ति पूज़ा एवं आड़ंबरों को उन्होंने खंड़न किया है ।” पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार । ताते यह चक्की भली पीस खाय संसार ।” भक्ति एवं भक्ति के तत्वों से आम जनता को आप्लावित किया । जनता ने उनको संत की दर्जा दी है । उनकी वाणी से अभिभूत होकर बाबा साहब अंबेडकर ने उनको अपना गुरू मान लिया है । कबीर दास निस्संदेह लोक कवि, सच्चे समाज सुधारक थे । अपनी अमरवाणी से जनता में चेतना प्रदानकर उन्होंने अपना नाम संत की कोटि में अव्वल दर्जे में खड़ा किया है ।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।