कविता

कलम, किताब और दवात

छू लेती थी ह्रदय तुम्हारा,
जब वो दद॔ वयां करती थी,,
थम जाती थी वो बूंदे जब खुलते थे दिल के पन्ने
उतर जाती थी एक एक अक्षर लिए
शब्दों में वयां करने,
वो संगम था हमारा,
डूब जाती थी प्रेम के लिए, निकल आती थी ,
नीला परिधान लिए, वो सफेद चादर में शब्दों के
मोती बिखेरते हुए।
भूल गये हैं हमें बन्द कमरों में
चूहे, बिल्ली लिए हुए,
बना दिया हाथों को चाबी का गुलाम,
जब चलते थे, सबके साथ
एक अहसास लिए हुए, सब साथ खड़े
मिलते थे प्रांगण में, एक सुर में
एक ताल में, पीपल की छांव लिए हुए
वो गंगा जमुना सरस्वती का संगम है हमारा,
भले ही यन्त्र तंत्र बनें हैं सहारा,
पर रहेंगे हम हमेशा सबका सहारा
आज हम तीन अंगुलियों में नहीं
दिखते पर वो गहरे राज, वो दिल की आवाज़,

वो नदिया के किनारे,वो आसमां वो सूरज,
चाँद सितारे, छिप गये है सारे राज हमारे,

पर वो गहराइयाँ हैं आज भी है हमारे सहारे,।
हम वो गुफा की गुफ्तगू हैं,

जो आज भी वेद, पुराणों में महफ़ूज है,।

छू लेते थे एक दूसरे का ह्रदय सबकी अंगुलियों के सहारे,

पर आज कैद है पी,डी,एफ बनकर इनकी जेबों के सहारे,

वो विस्तार था हमारा, बूंदो से लेकर सागर था किनारा।
छू लेती थी वक्त मिलते ही ह्रदय तुम्हारा,
आज मिलती भी हूँ पर सब डिलिट हो जाता है प्रेम तुम्हारा,
वो खुलकर तुम्हारे दिल की गहराइयों में डूब जाना,
और वो प्रेम की बूँदें लिए हुए इठलाना,
और फिर खुद को शब्दों में बयां कर जाना, बहुत याद आता है
वो गुजरा जमाना।
— सन्तोषी

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

स्नातकोत्तर (हिन्दी)