हाइकु/सेदोका

“जीना पड़ेगा कोरोना के साथ”

कोरोना ने
हमारे चारों ओर
जाल बुन लिया है

जाल!
हाँ जी!
जाल तो जाल ही होता है
चाहे वह मकड़ी का जाल हो
या बहेलिए का जाल

नदी, सरोवर सिन्धु में
चाहे मछलियाँ हों
या
मगरमच्छ हों
कोई नहीं बच सकता
जाल के फन्दे से
किन्तु एक उपाय है

आज हमें संगठित होकर नहीं
बल्कि
अलग-अलग रहकर
सावधानियों के साथ
इस जाल को काटना है

हवा में
पहले प्रदूषण की
समस्या थी
आज उसके साथ
विषाणु ने भी
डेरा डाल दिया है

घर-बाहर
आज कोई सुरक्षित नहीं है
सरदी-गरमी
या बरसात
कोई भी मौसम हो
इस विषाणु को
नहीं मार सका है

विडम्बना है ये
प्राणिमात्र के लिए
संकट काल है
जीना मुहाल है

विश्व परेशान है
कोरोना का जनक भी
हैरान है
नहीं बनी है
आठ महीने में भी
कोरोना विनाशक
कोई दवाई या
प्रतिरोधक वक्सीन

जीना तो पड़ेगा ही
मगर कैसे?

मुखपट्टी लगाकर
सामाजिक दूरी बनाकर
स्वच्छता के साथ
और धोना है
हर घण्टे साबुन से हाथ।
अब तो जीना सीखना है हमें
कोरोना के साथ।

डरना नहीं डराना है
हारना नहीं हराना है
कोरोना को भगाना है

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है