कविता

विनती

हे हमारे पूर्वजों, पित्तरों
मैं कुछ कहना चाहता हू्ँ,
परंतु आप लोगों के
क्रोध से डरता हू्ँ।
पर आज कह ही डालूँगा
काहे का डर
वैसे भी अब डरकर
क्या होगा?
जब डरना था
तब डरा नहीं,
आप लोगों के दिखाये मार्ग का
कभी अनुसरण किया नहीं।
तभी तो आज रोता हूँ
जो कल मैंने किया था
वही सब आज
खुद पाता हूँ।
बहुत भूलें/गल्तियां की मैनें
आज उन पल शर्मिंदा हू्ँ,
जाने क्या पाप किये
फिर भी अभी जिंदा हूँ।
हे मेरे बाप दादाओं
मुझ पर तरस खाओ,
हम सबको माफ करो
हमारे अंतर्मन में आओ,
हमारे किये हुए श्राद्ध तर्पण को
अब स्वीकार करो,
अपने इस वंश बेल की भूल का
न कोई मलाल करो।
मैं एकदम बदल गया हूँ,
सोने सा तपकर निखर गया हूँ,
विश्वास कीजिए अब कभी
आपका दिल नहीं दुखाऊँगा,
आप सबके चरणों में
सदा शीष झुकाऊँगा।
अस मेरी विनती स्वीकार करो
वापस आकर हमारे साथ वास करो।
— सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

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