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सपाट स्वच्छंदता

कविताओं का कैनवास पर छा जाना और चित्र का कागज पर उतर आना– जितनी सीधी पढ़ी जा सकती है, सोची नहीं जा सकती !  ….क्योंकि कैक्टस के नुकीले काँटों में दंश का राज है । दंश साम्राज्ञी बनी है, तो रखैल भी हो सकती है, किन्तु एक शर्त्त पर कि उनकी कोई सौतन न हो ! कागज पर इबादत के अलावा विकृत रचनाएँ भी लिखी जा सकती हैं । यूँ तो विकृत रचनाएँ दंश तो होती ही है, किन्तु इबादत भी कटु सत्य होने के कारण ‘दंश’ नामार्थ अभिहित हो पाई  भौतिक-संबंध के बीच स्वच्छंदता हो और कोई समझौता नहीं हो, क्योंकि समझौते कोई न कोई ‘वाद’ में बँधे होते हैं, परंतु स्वच्छंदता सपाट होता है । जीवन की गाड़ी स्वच्छंदता की पटरी पर ही चल सकती है । खुले विचार, बेबाक टिप्पणी । विचारों का टकराना, टिप्पणियों का कुनमुनाना व चरमराना आदि तो लगा ही रहेगा, किन्तु बहस का अंत के लिए फ़ख़्त कालीन पर ही पसरी दो सिसकराती हुई देह का होना अत्यंत आवश्यक है । यौन-तृप्ति ही नीति-नियामक स्थिति में है, तब शीतयुद्ध का अंत भी यहीं है और इस स्थिति को क्रिया में लाया गया है, तो जैविक युद्ध के जीव समूह भी यौन तृप्ति के तत्वश: युद्ध को भूल चुके होंगे ! हर बार की तरह इसबार की यौन तृप्ति पर कसगज और कैनवास कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थे ! बहरहाल, इनका कारण कथाकार भी नहीं जान सका है । दंश की प्रतिबद्ध स्थिति रोज-रोज कितनी हावी होती जा रही है, जानने के लिए कथान्त का इंतज़ार करना ही पड़ेगा ! कागज के स्पर्श मात्र से ही अमृता की याद हो आती है । यह स्मरणीय स्मृति सिर्फ इमरोज के अन्तस्थ आते-जाते हैं, रोज-रोज ! अमृता की सुंदरता भले ही दंश हो, किन्तु कैनवास की यही तो चाहिए । कैनवास के लिए मानसिक अविराम की बात तो चिरनिहित है । कागज की पसंद को कैनवास ने स्वीकारा । यह चालीस बरसों का गूढ़ रहस्य था । अमृता के चेहरे जितनी हसीन थी, खूबसूरत थी, उतनी ही मुश्किल भी थी, बल्कि यूँ कहिये कि मुश्किल ज्यादा ही थी । उनके चेहरे का भाव इतनी तेजी से बदलते थे कि कागज पर चढ़ रही उन शब्दों की भाँति , उन अनुच्छेदों की भाँति, जिनमें भावों का सहज मूल्यांकन करना बेहद जटिल था । अमृता का देह औरतीय देह अवश्य थी, किन्तु यह भी ज्ञात है कि यह कागजी देह थी- मुड़ी-तूड़ी, घिसी-पीटी ! इसके बावजूद उनमें नारीत्व आशा थी। कहने को तो देवदासिन होती हैं, किन्तु किशोरी से प्रौढ़ा की तरफ बढ़ते ही वो अहिल्या बना दी जाती हैं और बाद में उसी आनंद में गोते लगाने लगती हैं ! फिर उसके बाद उनकी बिस्तर के इर्द-गिर्द देह, देह और देह कतारबद्ध और करबद्ध मुदा में दिखाई पड़ने लगे जाते हैं । तब उन देवदासिनों को देव की महानता नहीं, उनका देह दिखाई देने लगते हैं ! यह देह मर्द का देह है । मर्द का देह आसानी से वे रोज-रोज ‘इंद्रत्व’ लिए प्राप्त हो जाता है । जो कोरा कैनवास होता है । कैनवास को पाना मुश्किल नहीं है, जबकि इसपर बनाए गए चित्र महंगा होने लगे हैं, क्योंकि यह चित्र दंश है और दंश की सृष्टि कैसे हुई ? यह जान चुके हैं ! यही कारण है, दंश को धारण करनेवाली औरत को पाना बेहद मुश्किल है ।

डॉ. सदानंद पॉल

एम.ए. (त्रय), नेट उत्तीर्ण (यूजीसी), जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), विद्यावाचस्पति (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर), अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी के प्रशंसित पत्र प्राप्तकर्त्ता. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकॉर्ड्स इत्यादि में वर्ल्ड/नेशनल 300+ रिकॉर्ड्स दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 12,000+ रचनाएँ और संपादक के नाम पत्र प्रकाशित. गणित पहेली- सदानंदकु सुडोकु, अटकू, KP10, अभाज्य संख्याओं के सटीक सूत्र इत्यादि के अन्वेषक, भारत के सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अर्हताधारक, पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.