कहानीसामाजिक

रिश्ते

पूनम की रात कुछ ऐसी होती है कि मानो चाँद ने अपनी सारी ख्वाहिशें पूरी कर लीं हों और वो खुलकर अपनी चांदनी सब पर बिखेर देना चाहता हो। कुछ ऐसा ही हुआ था रिया की जिंदगी में। आज मानो उसने सब कुछ पा लिया था..
रोहन जैसा जीवन साथी जो उसकी सारी ख्वाहिशों को ही अपने जीने का उद्देश्य मानता था। पहले ही उसे पाकर वह खुद को धन्य समझती थी।उस पर आज तो रोहन ने उसे बहुत बड़ी ख़ुशी दे डाली थी। रोहन की रात-दिन की मेहनत रंग लायी थी और आज रिया के जन्मदिन पर उसने रिया को वैसा ही घर तोहफे में दिया था जैसा वो कभी सपने में सोचा करती थी। रिया आज इतनी ज्यादा खुश थी कि समझ नहीं पा रही थी कि कैसे इस ख़ुशी का इज़हार करे। ये मानव स्वभाव होता है कि जब वो सबसे ज्यादा खुश होता है तो उस ख़ुशी भरे पल की तुलना अपनी पिछली जिंदगी के सबसे ज्यादा दुःख भरे पलों से करता है। यही रिया के साथ भी हुआ …उसे याद आने लगे वो दिन जब उसके सर पर छत भी नहीं थी। छत होती भी कैसे ? माँ-बाप रूपी धरती और आकाश तो उससे बचपन में ही छीन गये थे।
दस साल की थी रिया जब उसकी माँ ने बारह सालों तक अपने ससुराल वालों को खुश रखने और एक पोता दे कर मोक्ष प्राप्त करा पाने में खुद को असमर्थ पाया था और यह सोच कर दुनिया छोड़ दी थी कि उसके जाने के बाद शायद रिया के पिता दूसरी शादी कर के अपने घर वालों की मोक्ष प्राप्ति का रास्ता खोल दें, जो उसके जीते जी होना असंभव था। लेकिन रिया की माँ का बलिदान व्यर्थ गया।उसके रहते तो वो खुद को मिली तरह-तरह की उपाधियों मसलन निकम्मा ,नालायक, जोरू का ग़ुलाम आदि को सह लेते थे या यूँ कहें कि रिया की माँ उनके टूटे हुए अहं को अपने प्यार के गोंद से जोड़ दिया करती थी। उसके जाने के बाद उनका ह्रदय एक साथ इतने सारे आघात न सह सका। अगर सह पाता तो वो किसी भी कीमत पर अपनी लाडली को यूँ दुत्कार सहता छोड़कर दुनिया से दूर क्या, घर से बाहर भी न जा पाते। रिया बिल्कुल अकेली पड़ गयी थी, पहले ही उसे घर में कोई नहीं पूछता था। अब तो वो सब पर बोझ बन गयी थी। उसका बचपन,उसकी मासूमियत सब छिन गया था।
रिया के नाना यह कहकर उसे अपने साथ ले आये कि कुछ दिनों के लिए उसे ले जा रहे हैं ताकि उसका मन बहल जाये। जब आप लोगों को लगे तब आकर वापस ले जाइएगा।धीरे-धीरे दिन महीनों में बदले और महीने सालों में कोई उसे नानी के घर से ले जाने नहीं आया।
लेकिन उसकी खुशकिस्मती थी कि यहाँ उसे वही प्यार मिला जो बचपन में उसकी माँ को मिलता रहा होगा। नाना-नानी के लिए उनकी वही प्यारी गुड़िया फिर से लौट आयी थी जिसे उन्होंने पाल-पोसकर ब्याह दिया था। मामा-मामी को भी एक बेटी मिल गयी थी जो वो लगातार ईश्वर से माँगा करते थे। मौसियों के लाड़ का कुछ कहना ही नहीं माँ के अलावा माँ का प्यार तो बस वही दे सकतीं हैं। रिया से भले ही उसके माँ-बाप छिन गये पर उसे अब दुलार-प्यार की कोई कमी न थी।
रिया के नाना-नानी गांव में रहते थे उसकी बारहवीं तक की पढ़ाई वहीं पास के कस्बे के स्कूल में हुई। इसके बाद वो अपनी मौसी के पास लखीमपुर आ गयी पढ़ाई के लिए,उसके मौसा वहाँ चीनी मिल में वर्कर थे। वहां रहकर रिया ने बी.ए. पास किया। अब सभी को रिया की शादी की चिंता सताने लगी थी। संयोग से मौसा जी की मुलाकात रोहन से हुई,जो मिल में नया आया था।दरअसल मिल में एक दुर्घटना के दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गई थी इसलिए उसे मुआवज़े के रूप में यह नौकरी मिली थी।
रोहन ने अपने पिता से दो ही चीजें पायीं थीं जिंदगी में,एक जन्म और दूसरी ये नौकरी। बाकी उसका कोई वास्ता नहीं रहा उनसे कभी । बचपन में बुआ को ही माँ-बाप समझता था, और किसी की जरूरत ही कभी महसूस नहीं होती थी उसे। पिता भी उससे अलग-थलग ही रहते थे। या यूं कहें कि खुद में ही खोये-खोये से रहते थे,यही वजह थी कि वो कभी उनसे जुड़ ही नहीं पाया। बुआ,दादी और दादा ही दुनिया थे उसकी । उन्हीं को सब कुछ समझता था ।
लेकिन कुछ सालों पहले जिंदगी की एक सच्चाई के सामने आ जाने से उसने खुद ही उस दुनिया से खुद को अलग कर लिया था। सारे रिश्ते तोड़ लिए थे उनसे । रोहन के दादा रिटायर्ड जज थे,काफी पैसा और जायदाद के मालिक थे उसके दादा जिसका इकलौता वारिस रोहन था। रोहन की परवरिश किसी राजकुमार सरीखी ही हुई
थी, उसकी हर एक फरमाइश पूरी करते थे उसके दादा-दादी। लेकिन जब उसे सच का पता चला तब उसे अहसास हुआ कि उसकी ज़िंदगी को खोखला बनाने के बाद ये लोग अपने भावनात्मक स्वार्थ को पूरा करने के लिए ये सब करते थे।न केवल अकेले होने के अवसाद से जूझ रहा था बल्कि उससे भी ज्यादा इस बात के पछतावे को लेकर दुखी था कि काश ! ये सच्चाई मुझे पहले पता चल जाती तो मेरी ही नहीं बल्कि मेरे पिता कि ज़िंदगी भी कुछ और होती। बचपन से अब तक रोहन यही समझता रहा कि उसकी माँ उसे जन्म देते ही गुजर गयी थी।बुआ ने ही पाला पोसा था उसे। उनके जीने का वही एक सहारा था। शादी के बाद जब बुआ के बच्चे नहीं हुए तो उनके पति ने उन्हें छोड़कर दूसरी शादी कर ली थी। बहुत दुःख झेले थे उन्होंने ज़िन्दगी में। रोहन को पाकर उनका मातृत्व तृप्त हो गया था।जान बसती थी रोहन में उनकी। सच जानने से पहले रोहन के मन में भी बुआ के लिए  वही प्यार था। माँ नहीं थी वो रोहन की,लेकिन उससे कहीं ज्यादा बढ़कर थी।
एक दिन की बात है। रोहन कॉलेज से लौटा था।हमेशा शांत रहने वाले उसके पापा को पहली बार ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए सुना उसने। आवाज सुनकर उसके कदम दरवाजे पर ही ठिठक गए। वो कह रहे थे, जाकर कोई गुनाह नहीं किया मैंने!जब इतना बड़ा गुनाह करने के बाद मुझे कोई सज़ा नहीं दी भगवान ने तो आज कौन सा पहाड़ टूटेगा मुझ पर? जिसके हर दुःख-सुख को बांटने की कसम खाई थी उसे कम से कम मरते हुए देखने का तो हक था न मुझे। अब मुझे कोई डर नहीं किसी भी अनहोनी का।क्योंकि मेरा पूरा जीवन ही अनहोनी बन चुका है आप लोगों की वजह से। सिर्फ मेरा ही क्यों? मेरे बच्चे का भी।
जिसकी मां जिंदा हो और वो बिन मां का बच्चा कहलाये इससे बड़ी भी अनहोनी होगी कोई? सब आप लोगों की वजह से।लेकिन सच कहूँ तो मेरी वजह से। जब मैं ही अपने बीवी बच्चों का ध्यान नहीं रख पाया तो दूसरों को क्या दोष दूँ? मुझ पर आप लोगों की भक्ति का भूत सवार था मुझे लगता था कि आप लोग मेरे बड़े हैं मेरे लिए अच्छा ही सोचेंगे। लेकिन ये बात अब समझ में आई है मेरी कि प्यार नहीं था वो, स्वार्थ था आप लोगों का बल्कि उससे भी ज्यादा प्रतिशोध था। बेटी का घर टूटने का बदला आप लोगों और आपकी बेटी ने मेरा घर तोड़ कर पूरा किया। सब समझ में आ गया मुझे लेकिन अब क्या फायदा? दुःख तो यह है कि समय रहते समझ में नहीं आया।
कितना अभागा हूँ मैं? काश मुझे उस वक़्त समझ में आ जाता जब मेरी पत्नी आप लोगों के अत्याचार सह रही थी और मुझसे उम्मीद कर रही थी कि मैं कुछ करूँगा। जाने कितनी बार उसने अपने शरीर पर जलने के ज़ख्म दिखाए थे लेकिन मैंने आप लोगों की बात को सच माना था कि ये तो है ही फूहड़। कोई काम करने की अक्ल नहीं है जब देखो तब कहीं न कहीं जला लेती है खुद को। और मेरे सामने मेरी बहना उसके उन ज़ख्मों पर मलहम भी लगा दिया करती थी जो उसने खुद ही दिए होते थे उसे! मुझे तो तब भी उस पर यकीन नहीं हुआ था जब आप लोगों ने ये कह दिया था कि गरम चाय पीने से होंठ जला लिए इस पागल ने,जबकि मेरी प्यारी बहना ने ज़बरदस्ती मुँह में गर्म चाय उड़ेल दी थी। वैसे आप लोग ये मत समझियेगा कि हमेशा चुप रहने वाली मीरा ने आज आप लोगों की करतूतों से पर्दा उठा दिया है! वो तो आज भी चुप थी हमेशा की तरह या शायद आप लोगों ने बोलने लायक छोड़ा ही नहीं था उसे।बस उसकी आंखें बह रहीं थीं और उसके साथ हुए अत्याचार में डूबा रहीं थीं मुझे। काश!उसी में डूबकर मैं भी ख़त्म हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए मुझे तो सज़ा मिलनी चाहिए। अपनी बीवी की उम्मीदों की चिता जलाने की, अपने बच्चे के बचपन को आग लगाने की…
रोहन के पापा लगातार बोलते जा रहे थे और उनके किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं था न माँ के पास,न पिता के पास और न ही उनकी बहन के पास। तीनों चुपचाप सुन रहे थे। ये रोहन के लिए बिल्कुल उल्टा दृश्य था, आज तक उसने इन तीनों को बोलते और अपने पिता को चुपचाप सुनते हुए देखा था। बोलते-2 वो फूट-फूट कर रोने लगे। रोहन के दादा,दादी और बुआ स्तब्ध और घबराये थे। उनके चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव थे जैसे किसी चोर की चोरी सामने आ गयी हो। रोहन ने जब पापा को इस कदर बेतहाशा रोते हुए देखा तो उससे रहा नहीं गया। न चाहते हुए भी उसे बड़ों की बातों के बीच जाना पड़ा। पापा के कन्धे पर जब उसने हाथ रखा तो वो और जोर से रो पड़े। रोहन के सामने उन्होंने हाथ जोडें और बोले,मुझे माफ़ कर देना बेटा! तू ही माफ कर दे मुझे तेरी माँ तो अब रही नहीं जिससे माफी मांग सकूँ। वो तो चली गयी आँखों में ढेर सी शिकायतें और उम्मीदें लिए। अब ऊपर जाकर ही मांग लूंगा शायद माफ कर दे मुझे। बाप-बेटे एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगे।
उस दिन से आज तक रोहन ने कभी अपने दादा-दादी के घर में कदम नहीं रखा। उन लोगों की भी कभी हिम्मत नहीं पड़ी रोहन और उसके पापा को मना पाने की। रोहन के पापा ने उसी मिल परिसर में क्वार्टर ले लिया था और दोनों वहीं रहने लगे थे। वहाँ दादा के घर जैसा वैभव तो नहीं था लेकिन दोनों बहुत खुश रहते थे। पापा उस प्यार की भरपाई करना चाहते थे जो पूरे जीवन अपनी पत्नी और बेटे से नहीं कर पाए थे। उनके सुख-दुःख का साथी अगर कोई था तो वो थे प्रभात अंकल । उन्होंने पूरी ज़िंदगी रोहन के पापा को सच से रूबरू कराने की कोशिश की लेकिन जब तक उन्हें बात समझ आयी तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
दरअसल प्रभात अंकल रोहन के दादा के पड़ोसी थे।अक्सर घर में होने वाले क्रियाकलाप दिन भर घर से बाहर रहने वाले सदस्यों से ज्यादा पड़ोसियों को पता चल जाते हैं। वो भी तब जब घर के सारे लोग किसी एक व्यक्ति पर हर पल अत्याचार करते रहते हों। रोहन की माँ वैसे तो सब कुछ चुपचाप सहती थी लेकिन जब दर्द बर्दाश्त से बाहर हो जाता था तो न चाहते हुए भी चीख निकल जाया करती थी उसकी। उन्हीं चीखों को सुनकर कई बार प्रभात अंकल ने पता लगाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। खिड़की के झरोखे से झाँकने की कोशिश में एक दो बार मीरा यानी रोहन की माँ की नज़रें प्रभात अंकल पर पड़ गयीं थी। मीरा को महसूस हुआ कि ये मेरी कुछ मदद कर सकते हैं, यही सोचकर उन्होंने एक दिन चुपके से एक चिट्ठी या यूं कहें कि एक पर्ची प्रभात अंकल की ओर बढ़ा दी थी क्योंकि चिठ्ठी लिख पाने का मौका उन्हें शायद ही मिलता। प्रभात जी ने बिना देर किए उस पर्ची को उनके मायके वालों तक पंहुचा दिया था क्योंकि वो रोहन के पापा से कह-कह कर हार चुके थे।
अपनी बेटी के शरीर पर निशानों को देखकर रोहन के नाना टूट गए थे और ढेर सारी बद्दुआएं अपने समधी को देकर अपनी बेटी को साथ ले गए थे,साथ में ये कसम भी ली थी कि अब वह दुबारा इस घर में वापस नहीं आएगी। उनके पास इतनी हैसियत नहीं थी कि अंधे कानून की आँखें खोलकर अपनी बेटी के ऊपर हुए अत्याचारों का बदला ले सकें। उन्होंने तो बार-बार अपनी बेटी के भाग्य को सराहा था कि उसे इतना बड़ा घर मिला,उन्हें तो अंदाजा भी नहीं था कि बेटी का भाग्य उसे प्रताड़ना के सिवा और कुछ न दे सका था। बदले की भरपाई उन्होंने बद्दुआओं से पूरी करने की कोशिश की थी। तब रोहन सात महीने का था। उसे माँ की जरूरत नहीं थी क्योंकि उसे बुआ ने कभी माँ को छूने ही नहीं दिया।
दो साल बाद रोहन के पापा की दूसरी शादी करवा दी गई पर पत्नी के प्रति उनकी उदासीनता और घरवालों के पूर्ववत अत्याचारों से तंग आकर दूसरी पत्नी ने भी घर छोड़ दिया। सब ऐसे ही चलता रहा। रोहन के पापा रोज काम पर जाते, वापस आते और मशीनी तरीके से अपनी ज़िंदगी को जीते रहे। पता नहीं उनमें हालात बदलने की शक्ति नहीं थी या वो इन्हीं हालातों को अपनी ज़िंदगी की सच्चाई मान बैठे थे।
लेकिन आज ये बीस सालों बाद उनके अंदर कौन सा आत्मविश्वास जाग उठा था? कौन था इसके पीछे ? काम से लौटे थे पार्क में बैठकर सुस्ता रहे थे। तभी उन्होंने देखा एक छोटा सा परिवार माँ-बाप और बच्चा। माँ-बाप दोनों मिलकर अपने बच्चे को झूला झुला रहे थे। पता नहीं कैसे उन्हें भी अपना बच्चा याद आ गया। और सोचने लगे कि शायद ही मैंने कभी गोद में उठाया हो रोहन को ! और उसकी माँ ने? माँ की गोद तो कभी देखी ही नहीं उसने….कितना अभागा है मेरा बेटा! और उसकी माँ भी ! उनकी चेतना ने उन्हें झकझोर दिया..लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है?
अक्सर ऐसा होता है कि हम अन्याय को ही ज़िन्दगी मान बैठते हैं लेकिन हमारी अन्तरात्मा उसे स्वीकार नहीं करती। हम उसकी आवाज को भी लगातार दबाते रहते हैं पर एक दिन ऐसा आता है कि हम उसे दबाने में नाकामयाब हो जाते हैं और हमारी अंतरात्मा मैंने झिंझोड़ देती है कि हमने क्यों इस अन्याय के खिलाफ समय रहते आवाज नहीं उठाई। जिंदगी कुछ और ही होती अगर हमने कुछ कहा या किया होता।
आज यही हुआ था रोहन के पापा के साथ,पता नहीं किस दैवीय चेतना ने उन्हें जगा डाला था। जब मन में विचार उठते हैं तो कहीं ना कहीं बाहरी जीवन में भी वैसे ही परिवर्तन दिखाई देने लगता है शायद इसीलिए कहते हैं कि किसी चीज को अगर दिल से चाहो तो पूरी सृष्टि उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है।
रोहन के दादाजी अक्सर बीमार रहते थे और उनकी दवा लेने रोहन के पापा ही जाते थे। अन्य दिनों की तरह वह दवा लेने के लिए लाइन में खड़े थे कि उन्होंने उसी लाइन में रोहन के नाना को देखा उनकी हिम्मत तो नहीं हुई कि वो उनसे कुछ पूछ सकें। लेकिन जब दवा काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने उनसे मरीज का नाम पूछा तो उन्होंने बताया, मीरा। यह नाम सुनते ही रोहन के पापा के दिल की धड़कन तेज हो गई और वह बिना कुछ सोचे समझे रोहन के नाना के पीछे पीछे चल पड़े ,चलते चलते वो उसी वार्ड में पहुंच गए जहां मीरा लेटी थी। वार्ड मानसिक रोगियों का था,ऐसे रोगी जिन्हें समाज के द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है क्योंकि उनसे समाज को और उनके परिवार को भी कोई लाभ नहीं होता उल्टे उनकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है लेकिन समाज और परिवार कभी यह नहीं सोचता यह जो रोग है इसका कारण कोई और नहीं बल्कि रोग के कीटाणु परिवार और समाज से उतरे हैं रोगी के जीवन में। उन्हें पागल कहकर छोड़ दिया जाता है उस त्रासदी के अंधेरे में जो अंधेरा उनके अपनों ने ही फैलाया होता है उनकी ज़िंदगी में। ऐसे त्रासदी से झूझते लोग अक्सर ही कचहरी,बस अड्डे और रेलवे स्टेशनों पर देखने को मिल जाते हैं और लोगों के मनोरंजन का साधन बन जाते हैं।जो लोग खुद को सहृदय मानते हैं वो इन्हें कुछ पैसे या खाने-पीने का सामान दे देते हैं। बस ये अपने हाल पर जीते हैं और गुमनाम मौत का शिकार हो जाते हैं।
जब रोहन के नाना पीछे मुड़े तो उन्होंने पीछे अपने उस निकम्मे और नाकारा दामाद को खड़ा पाया जिससे वो दुनिया में सबसे ज्यादा नफरत करते थे।
वो तुरंत ही फूट पड़े,”अब यहाँ तू क्या करने आया है?..मेरी बेटी की मौत देखने!….अपने चीत्कार में उन्होंने वो सारे अत्याचार गिनाने शुरू कर दिए जो मीरा ने शादी के बाद से अब तक झेले थे।रोहन के पापा चुपचाप सब सुनते रहे और फिर अपने कदम पीछे खींचकर घर लौट आये बिना दवा लिए।
घर लौटे तो माँ ने पूछा दवा लाये? उन्होंने जवाब दिया कि दवा नहीं आप लोगों के लिए जहर ले आना चाहिए था मुझे। माँ ने बेटे से कभी ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं की थी। बेटा तो इतना संस्कारी था ऐसा क्या हुआ? शायद किसी ने कान भरे हैं इसके,पर किसने ?
माँ-तुम हॉस्पिटल गये थे न।
हाँ गया था और वहाँ वो ज़ख़्म देखने को मिले जो मुझे ज़िन्दगी भर आप लोगों ने दिये हैं। रोहन के पापा ने नफरत भरी निगाहों से अपनी माँ को देखते हुए कहा।
तुम उस पागल से मिलने गये थे? मुझे पता चला था कि वो पागल इसी हॉस्पिटल में है। आज कौन सा प्यार उमड़ आया तेरे अंदर? माँ चीखते हुए बोली।
हाँ गया था और अब रोज जाऊँगा भी…रोहन के पापा ने दुगुनी तेजी से चिल्लाते हुए जवाब दिया।
इसके बाद से वो मीरा के ज़िंदा रहने तक रोज  हॉस्पिटल जाते रहे। वहाँ बैठकर वो मीरा के घर वालों की गालियां सुनते और एकटक पल-पल मरती अपनी पत्नी को देखकर चुपचाप आँसू बहाते रहते। अपने पश्चाताप के लिए यही रास्ता चुना था उन्होंने…
जब मीरा गुजर गई तो अपने परिवार से विद्रोह कर वो रोहन को अलग ले आये। सब ठीक चल रहा था कि अचानक उस मिल में आग लग गयी जिसमें रोहन के पापा काम करते थे और रोहन ने इस बार अपने पापा को हमेशा के लिए खो दिया। वो बिलकुल अकेला हो गया था।प्रभात अंकल कोशिश करते थे कि वो खुद को अकेला महसूस न करे पर पिता की जगह कोई कैसे ले पाता?
रोहन का अब पढ़ाई में भी मन नहीं लगता था। उसे अपने पापा की जगह पर मिल में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गयी थी और वो अब व्यस्त रहने लगा था। उसने अपनी सारी ऊर्जा अपने काम में झोंक दी थी और कम समय में ही मिल का कुशल व लोकप्रिय कर्मचारी बन गया था।
रिया के मौसा की नज़र रोहन पर शुरू से थी वो चाहते थे कि रिया की शादी रोहन से हो जाय।जब उन्होंने रोहन से उसके परिवार के बारे में पूछा तो उसने प्रभात अंकल के बारे में बताया कि मेरे परिवार में बस यही हैं। रिया के मौसा ने जब प्रभात जी से रोहन की शादी के बारे में बात की तो वो रिया को देखकर सहर्ष ही तैयार हो गए। रोहन भी रिया से मिलकर खुश था और प्रभात अंकल की बात भी वह टाल नहीं सकता था। दोनों की शादी धूमधाम से हुई।उन्होंने अपना एक सुंदर संसार बनाया जहाँ सिर्फ प्यार ही प्यार था।
और आज…दोनों अपने नये घर में रहने जा रहे थे।दोनों ही आज अपने माँ-बाप को याद कर रहे थे।और सोच रहे थे,काश!वो भी हमारे साथ होते। कितना त्रासद होता है जब कुछ रिश्ते सारे रिश्तों को निगल जाते हैं और ज़िन्दगी में ऐसे अभाव पैदा कर देते हैं जो ताउम्र नहीं भरते। नफरत की कड़ियाँ रिश्ते-दर-रिश्ते बढ़ती ही जाती है और रिश्तों की ये नफरत कब ज़िन्दगी में घुल जाती है पता ही नहीं चलता ।यही हुआ था रिया और रोहन के साथ भी….

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश