कविता

धरती की संतान

हम सब धरती की संतान हैं
चलो अच्छा है कि
इतनी तो समझ
अभी बाकी है हममें,
पर मेरे प्यारे समझदार भाइयों बहनों
क्या सिर्फ कहना?
मान या समझ लेना ही
पर्याप्त है
या फिर हमें भी
कुछ करने की जरूरत है?
आखिर जब धरती माँ ने
अपना विशाल आँचल
अपने बच्चों के लिए फैला रखा है,
हमें कष्ट न हो इसीलिये
खुद हर कष्ट सहकर भी
मुस्कराहट ओढ़ रखा है।
हमारे खाने पीने जीने के लिए
लाखों लाख जतन कर रही है,
अपने सीने पर जख्म सहकर
हमारे लिए इंतजाम कर रही है,
पर हमारे कर्मों से आज
हम सबकी धरती माँ रो रही है।
नदी, झील, झरने, नदियां,
जलस्रोतों को हम
निर्बाध ढकते मिटाते जा रहे हैं,
पेड़ पौधों से धरा को
वीरान करते जा रहे हैं,
हरियाली का नामोनिशान
मिटाने का पूरा इंतजाम कर रहे हैं,
जलक्षेत्र, वनक्षेत्र ,कृषि क्षेत्र
घटते जा रहे हैं
बदले में कंक्रीट के जंगल
लगातार बढ़ रहे हैं।
बाढ़ ,सूखा, भूस्खलन
बादल फटना,धरती का फटना
पहाड़ों का खिसकना
ग्लेशियरों का टूटना / पिघलना
प्राकृतिक आपदाओं का आना जाना
अब आम हो रहा है।
मौसम का तारतम्य भी अब
बिगड़ता जा रहा है।
जाने कितने पशु पक्षी,
पेड़ पौधे, जीव जंतु
सदा के लिए विलुप्त हो गये,
या विलुप्त होने की कगार पर हैं,
क्योंकि हम अपने सुख के लिए
ऐसे वातावरण तैयार कर रहे हैं,
प्रत्युत्तर में खून के आँसू भी
धीरे धीरे हम भी अब रोने लगे हैं,
फिर भी बड़े समझदार हैं
ये घमंड भी कम नहीं है।
अपने ही हाथों अपनी ही माँ का
दामन लहूलुहान कर रहे हैं
धरती माँ की कोख रेगिस्तान कर रहे हैं,
अपनी और अपनों की ही नहीं
मानव और मानव सभ्यता की
मौत का खुद इंतजाम कर रहे हैं।
जख्म पर जख्म हम
धरती माँ दामन पर
खुद ही किए जा रहे हैं
धरती माँ की चीखों को
बड़ी ही बेशर्मी से दबा रहे हैं।
हाय रे। मानव सभ्यता और संस्कृति
अपनी ही धरती माँ का बदन
नंगा, खोखला करते जा रहे हैं,
अपने विनाश, सर्वनाश का
पुख्ता इंतजाम कर रहे हैं।
हम सब धरती की संतान हैं
फिर भी देखो
कितना गर्व से कह रहे हैं,
संतान होने का कर्तव्य
किस किस तरह निभा रहे हैं?
धरती माँ के सीने पर खड़े होकर
बेशर्मी, बेहयाई का
नंगा नाच कर रहे हैं,
हम सब तेरी संतान हैं माँ
अपनी ही माँ को बता रहे हैं।
● सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.
8115285921
©मौलिक, स्वरचित

धरती की संतान
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हम सब धरती की संतान हैं
चलो अच्छा है कि
इतनी तो समझ
अभी बाकी है हममें,
पर मेरे प्यारे समझदार भाइयों बहनों
क्या सिर्फ कहना?
मान या समझ लेना ही
पर्याप्त है
या फिर हमें भी
कुछ करने की जरूरत है?
आखिर जब धरती माँ ने
अपना विशाल आँचल
अपने बच्चों के लिए फैला रखा है,
हमें कष्ट न हो इसीलिये
खुद हर कष्ट सहकर भी
मुस्कराहट ओढ़ रखा है।
हमारे खाने पीने जीने के लिए
लाखों लाख जतन कर रही है,
अपने सीने पर जख्म सहकर
हमारे लिए इंतजाम कर रही है,
पर हमारे कर्मों से आज
हम सबकी धरती माँ रो रही है।
नदी, झील, झरने, नदियां,
जलस्रोतों को हम
निर्बाध ढकते मिटाते जा रहे हैं,
पेड़ पौधों से धरा को
वीरान करते जा रहे हैं,
हरियाली का नामोनिशान
मिटाने का पूरा इंतजाम कर रहे हैं,
जलक्षेत्र, वनक्षेत्र ,कृषि क्षेत्र
घटते जा रहे हैं
बदले में कंक्रीट के जंगल
लगातार बढ़ रहे हैं।
बाढ़ ,सूखा, भूस्खलन
बादल फटना,धरती का फटना
पहाड़ों का खिसकना
ग्लेशियरों का टूटना / पिघलना
प्राकृतिक आपदाओं का आना जाना
अब आम हो रहा है।
मौसम का तारतम्य भी अब
बिगड़ता जा रहा है।
जाने कितने पशु पक्षी,
पेड़ पौधे, जीव जंतु
सदा के लिए विलुप्त हो गये,
या विलुप्त होने की कगार पर हैं,
क्योंकि हम अपने सुख के लिए
ऐसे वातावरण तैयार कर रहे हैं,
प्रत्युत्तर में खून के आँसू भी
धीरे धीरे हम भी अब रोने लगे हैं,
फिर भी बड़े समझदार हैं
ये घमंड भी कम नहीं है।
अपने ही हाथों अपनी ही माँ का
दामन लहूलुहान कर रहे हैं
धरती माँ की कोख रेगिस्तान कर रहे हैं,
अपनी और अपनों की ही नहीं
मानव और मानव सभ्यता की
मौत का खुद इंतजाम कर रहे हैं।
जख्म पर जख्म हम
धरती माँ दामन पर
खुद ही किए जा रहे हैं
धरती माँ की चीखों को
बड़ी ही बेशर्मी से दबा रहे हैं।
हाय रे। मानव सभ्यता और संस्कृति
अपनी ही धरती माँ का बदन
नंगा, खोखला करते जा रहे हैं,
अपने विनाश, सर्वनाश का
पुख्ता इंतजाम कर रहे हैं।
हम सब धरती की संतान हैं
फिर भी देखो
कितना गर्व से कह रहे हैं,
संतान होने का कर्तव्य
किस किस तरह निभा रहे हैं?
धरती माँ के सीने पर खड़े होकर
बेशर्मी, बेहयाई का
नंगा नाच कर रहे हैं,
हम सब तेरी संतान हैं माँ
अपनी ही माँ को बता रहे हैं।

 

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921