कविता

यही फर्क है

हमारे और आपके सोचने में
महज थोड़ा सा अंतर है।
आप जीने के बारे में सोचते हैं
मैं जिंदा रहने के बारे में,
आप सौ साल जिंदा रहना चाहते हैं,
इससे ज्यादा आप सोच भी नहीं पाते
सोचकर भी काँप जाते हैं।
मैं तो कम से कम
हजार दो हजार साल भी
जीना नहीं जिंदा रहना चाहता हूँ,
मरकर भी इस जहाँ में रहना चाहता हूँ,
क्योंकि जो कुछ भी है
हमारे या आपके पास
वो सब कुछ आप का नहीं
इस संसार का है, समाज का है।
फिर जब आप कुछ नहीं ले जा सकते
तब आप विचार क्यों नहीं करते
अपने दायित्वों का निर्वहन करने से
आखिर पीछे क्यों हटते?
समाज हो या संसार ने तो
आपको बहुत कुछ दिया
इस पर भी विचार कीजिये
आपने क्या दिया या देकर जायेंगे?
अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति धर्म का
रोना मत रोइए,
आप दुनियां के सबसे अमीर आदमी हो
वेशकीमती मानव तन के मालिक हो
कुछ नहीं तो अपनी आँखें
अपने अंग, देह का दान करो।
यह शरीर जलकर खाक हो जायेगा
अथवा मिट्टी में दफन हो
सड़ गल जायेगा,
आखिर किस काम आयेगा?
शरीर का क्रिया कर्म यहीं हो जायेगा
शरीर से आत्मा पहले ही
आपको छोड़ जायेगा,
यह शरीर मात्र मिट्टी रह जाएगा।
आइए! विचार कीजिये
मानव हैं तो मानवता के काम कीजिये,
जीते जी कुछ दिया या नहीं
मरकर तो देते जाइये,
जितना जीना है उतना तो हम
हरहाल में जीकर ही जायेंगे,
जाने से पहले जिंदा रहने की
पृष्ठभूमि तो तैयार करते जाइये
हमारी आपकी सोच एक सी हो
कुछ ऐसा आप भी विचार बनाइए,
सोच का फर्क मिटाइए
कुछ देने का इंतजाम
पहले से करके ही जाइए,
मरकर भी जिंदा रहने का
आधार तो आज ही बनाइये।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921