सामाजिक

औरत सदा महान

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः।
एक औरत जिसे मर्यादा , प्रतिष्ठा, गरिमा , महिमा , इज़्ज़त , आबरू , हया , लज्जा , शर्म यातना , आदि पूरी जिम्मेदारी एक औरत के खाते में ही डाली गयी है। यू भी औरत को भारतीय संस्कृति में औरत का दर्जा दिया ही कब गया है? वो तो देवी है श्रद्धा की मूर्ति है, पूजनीय है , वंदनीय है , और फिर यही कहा जाता देवीयाँ बोला नही करती। वो तो पूजा के पंडाल में सजी धजी मूक बधिर ही अच्छी लगती हैं। एक औरत से भी यही तो अपेक्षा की जाती है वो सिर्फ़ जीवन भर अपनी ज़िम्मेदारियाँ पुरी करे , पहले बेटी बनकर फिर पत्नी बनकर फिर , बहू बनकर, मां बनकर , हर रिश्ते को खामोशी से निभाना है। उफ़्फ़ कर दे तो ज़माना लगता है उसे तरह तरह के इल्ज़ाम लगाने। मर्दो ने हमेशा से ही औरतों को दबाया। इसमें औरतों ने कम साथ नहीं दिया बल्कि औरत ही औरत के मार्ग की बाधा भी बनती रही।तो क्या औरत चुप रहे तभी महान है? आपको क्या लगता है ? औरत बोलती क्यों नहीं ? वो मर्दो से डरती है, वो हर उस स्पेस से डरती है जहाँ मर्दो की मौजूदगी है, सुनसान सड़क से डरती है यहाँ तक कि जब वो कुछ सचाई पर भी लिखना चाहती है तो कभी कभी अपने नाम से लिखने से भी डरती है। बाहर की इस दुनियां में वैदिक काल के बाद से पुरुषों का दब दबा रहा है। किसी भी रूप में हो पुरषों से हमेशा औरतें डरती रही हैं। आज भी डरती हैं। कभी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया उनके चरित्र पर उँगली उठाई जाती उसका खुल कर बोलना , हक़ के लिये बात करना अच्छा नहीं समझा जाता। आप सब जब भी खाली बैठे तो विचार करें , फुरसत मिले तो सोचिएगा एक मजबूर औरत सब जान कर भी चुप रहती है और सब कुछ सहते सहते इस दुनियां से चली भी जाती है। उसके साथ अन्याय हो रहा है ये जानते हुए भी अपना मुँह बंद रखती है । चाहे कही भी जाय पर घर लौट कर वापस आती ही है। घर की इज़्ज़त और बच्चों की ज़िंदगी का जो सवाल होता है। आज सब कहते हैं समय बदल चुका है पर नारी की कहानी वही है। बस इतना अंतर आया है कि पहले स्त्री असहाय होती थी , आश्रित होती थी ,सभी के सामने विलाप करती थी। आज पढ़ी लिखी हो जाने से अपनी समस्याओं से जूझती है , ये आखिर कब तक और क्यों ?

कुदरत अगर मधुर नज़म तो , औरत ही उनवान है।
सच की ये आवाज़ बनी, मंज़िल पर इसका मुक़ाम है।
कभी लूटी बिकी कही पर, हर वक़्त विवश परेशान है।
सबको दे देती है खुशियां, पर अंदर से वीरान है।

— आसिया फ़ारूक़ी

*आसिया फ़ारूक़ी

राज्य पुरस्कार प्राप्त शिक्षिका, प्रधानाध्यापिका, पी एस अस्ती, फतेहपुर उ.प्र