कविता

तुम्हारी तरह मेरे भी रूप अनूप हैं

 

असल में देखा जाए,
तो महिला और पुरुष एक ही धुरी के
दो चक्के हैं,
अलग-अलग पहलू वाले सिक्के हैं
नारी के बिना पुरुष अधूरा है,
पुरुष के बिना नारी का अस्तित्व कहां पूरा है!
तुम मुझे महिला कहते हो,
महिला कहते हो यानी मत हिला
जब तक तुम मुझे नहीं हिलाते हो
मैं नदी की तरह शांत रहकर बहती रहती हूं
लेकिन जब मुझे हिलाते हो
तो मैं समुद्र की लहरों की भांति
ज्वार भाटा भी ला सकती हूं.
तुम मुझे अबला कहते हो
यानी बल रहित
हां, मैं अबला हूं
जब तक तुम अपना बल प्रयोग
नहीं करते हो
मैं कछुए की तरह
अपने समूचे बल को सिकोड़कर
अबला बनी रहती हूं
लेकिन जहां तुमने
बल प्रयोग का सहारा लिया
मैं भी सब सहारे छोड़कर
बल का सहारा लेती हूं
और सबला बन जाती हूं.
तुम मुझे नारी कहते हो
यानी न अरि या दुश्मन
जब तक तुम मेरे दुश्मन नहीं बनते,
मैं भी तुम्हारी सखी बनी रहती हूं
पर जब तुम दुश्मनी दिखाते हो
तो मैं भी साकार दुश्मन बन जाती हूं.
तुम नारी को समर्पण की देवी कहते हो
हां मैं समर्पण की देवी नारी हूं
समर्पण की पराकाष्ठा हूं
पर जब तुम मेरे समर्पण का
नाजायज फायदा उठाते हो
मैं तुन्हें अपनी औकात का
दर्पण भी दिखा सकती हूं.
तुम्हारी तरह मेरे भी कई रूप हैं
ये रूप कभी छांव कभी धूप हैं
मैं भी तुम्हारी तरह हर क्षेत्र में
अपना जलवा दिखाने में समर्थ हूं
तुम्हारी तरह मेरे भी रूप अनूप हैं,
तुम्हारी तरह मेरे भी रूप अनूप हैं,
तुम्हारी तरह मेरे भी रूप अनूप

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244