हास्य व्यंग्य

दुनिया के रंग और होली

होली को भारत वर्ष के बड़े त्योहारों में से एक माना जाता है । होली भी अन्य त्योहारों की तरह पौराणिक संदर्भों से जुड़ी हुई है । होली आपसी भाईचारे के साथ आपसी दुश्मनी मिटाने का भी अनुपम त्योहार है । होली के दिन हाथ गुलाल की थैली ले मैं घर से निकला मैंने सोच रखा था कि आज मैं उसी चेहरे पर रंग लगाऊंगा जिस चेहरे पर पहले से कोई रंग पुता हुआ ना हो ।
हर उम्र की टोलियाँ अपनी-2 मस्ती में तल्लीन पाई गई । मैं उस चेहरे की तलाश में यहाँ वहाँ भटक रहा था कि कोई ऐसा चेहरा मिल जाये जिस पर पहले से कोई रंग चँढ़ा हुआ ना हो पर घंटों बीत गये पर ऐसा कोई चेहरा  नहीं मिला । अधिकतर ऐसे चेहरे मिले जिन पर एक ही नहीं कई रंग चँढ़े हुए थे । इस कारण मैं मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हें रंग नहीं लगा सका ।
     इस जमाने में ऐसी प्रतिज्ञा करना मेरी भूल थी या फिर सबसे बड़ी मूर्खता ये बात मुझे अब रह रहकर समझ आने लगी थी खैर मैं भी पीछे कहाँ हटने वाला था । अचानक दो तीन लोग ऐसे आते हुए दिखाई दिए जिनके चेहरे साफ-सुथरे दिखाई दे रहे थे उन्हें देखकर मेरी बाँछें खिल गई और मेरे चेहरे पर कुछ संतोष के भाव दिखाई देने लगे । मैं त्वरित गति से उनके पास गया  और उन्हें रंग  लगाने हेतु थैली में हाथ डालने लगा कि उनमें से एक ने मुझे टोका – भाईसाहब , रंग लगाने का प्रयास मत करिए पहले हमें बताओ कि अब तक किसी ने भी आपके चेहरे पर रंग क्यूँ ना लगाया आपका चेहरा बिल्कुल साफ है जबकि अब दोपहर का एक बज गया है अधिकतर लोग होली खेल चुके हैं । मैंने दुखी मन से उनके प्रश्न का उत्तर दिया-आदरणीय, जब मैंने किसी के रंग नहीं लगाया तो वो मेरे कैसे लगाते । आपने उन्हें रंग क्यों नहीं लगाया ? जबकि आप घर से होली खेलने ही निकले होंगे । बंधुवर मुझे जितने भी लोग मिले उनके चेहरे पहले से भिन्न-2 रंगों से ही पुते हुए मिले फिर मैं कैसे लगाता मैंने प्रतिज्ञा जो कर रखी थी कि जिसके चेहरे पहले से रंग लगे हुए होंगे उनके मैं रंग नहीं लगाऊंगा । उन्होंने मुझे और मेरे विचारों को इंट्रेस्टिंग समझकर मुझे एक बंद दुकान के अहाते में बैठने को कहकर बात करने लगे ।
वे मुझसे कहने लगे – क्या, आप इन सभी होली के रंगों को ही अंतिम रंग मानते है । नहीं, साफ चेहरे भी किसी ना किसी रंग से पुते रहते हैं ये हम सबको समझाना चाहिए । हमें ही लीजिये आज हम तीनों मित्र ये सोचकर घर से निकले कि ना हमें किसी के रंग लगाना है और ना ही लगवाना है तो देखिये हमारे चेहरे और हम इस माहौल में भी इन सभी रंगों से दूर हैं ।
पर ये भी असत्य है चाहे कोई रंग ना लगवाये या वो किसी के रंग ना लगाये ये भी एक रंग की श्रेणी में ही आता है । जैसे आप ने सोचा कि मैं उसी चेहरे पर रंग लगाऊंगा जिस चेहरे पर पहले से कोई रंग ना लगा हो वैसा एक भी चेहरा आपको नहीं मिला । जो हम मिले जिनके चेहरे दिखने में साफ लग रहे हैं क्या वो साफ है जिनने ना रंग लगाने व ना रंग लगवाने की सोचकर घर से निकले अर्थात कहीं ना कहीं हमारे चेहरे भी कोई ना कोई रंग से पुते हुए हैं ये समझ आना चाहिए । आज के जमाने में एक भी चेहरा ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी भी रंग में रंगा ना हो ये आपकी दृष्टि की काबिलियत पर निर्भर करता है कि वो उसे देख पाती है कि नहीं । उनकी बाते सुनकर मेरे हाथ रंग की थैली में जाते-जाते रुक गये । और सोचने लगा कि सचमुच आजकल रंगों का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है रंग प्राकृतिक और कैमिकल मिश्रित कृत्रिम ही नहीं रहे इनके अलावा भी आज के इंसान ने अनेक तरह के रंग ईज़ाद कर लिए हैं जिन्हें वो ना केवल होली के समय ही चेहरे पर लगाता है बल्कि वर्ष भर ही वो रंग, उसके चेहरे पर लगे रहते हैं । ऐसा भी नहीं है कि वो रंग दिखाई नहीं देते वरण दिखाई भी देते हैं और महसूस भी होते हैं वो रंग हैं- राजनैतिक, सामाजिक , धार्मिक, खेल  के साथ-साथ चोरी , जेबकटी ,जुआ , शराब, भंग आदि इनके अलावा भी अनेक रंग हैं जिनके आगे ये लाल-पीले- हरे रंग अपनी पहचान, अपना असर भूलते जा रहे हैं ।
मैं सोचता-सोचता बापस अपने घर आ गया दिखने में, मैं सभी को साफ सुथरा दिख रहा था पर मैं आज ना जाने कितने रंगों से होली खेला ये मैं भी ना जान पाया फिर दूसरे समझे इसकी क्या गारंटी ? सच में,  मैं स्वयं पहचान  नहीं पा रहा था स्वयं को …. पर एक पुराना भजन मन गुन-गुनायें जा रहा था –  “दुनिया बड़ी रंगीन बाबा ,,दुनिया बड़ी रंगीन ,,,
    जो समझे उसको लागे, ना समझे रंग-हीन ,,,, बाबा दुनिया बड़ी रंगीन,,
— व्यग्र पाण्डे 

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201