लघुकथा

दो बूंद पानी

“कम्मो, कहीं से दो बूंद पानी लादे, प्यास से जान जा रही है.” मां ने बेटी से कहा.
“प्यास को भी हम पर तरस भी नहीं आता, पता है कि पानी नहीं है तो प्यास लगती ही क्यों है?” कम्मो और क्या कह सकती थी. रीते बरतन लेकर पानी की तलाश में चल पड़ी.
जहां-जहां पानी मिलने की आस थी, वह गई. कहीं भी पानी की बूंद तक न दिखाई दी.
“पिछले साल बारिश जो बहुत कम हुई, पानी आए कहां से!” वह खुद से ही बतियाने लगी.
“अरी कम्मो, तू तो खुद से ही बतियाने लग रही है, क्या बात है?” बिम्मो भी रीते बरतन लिए उसके साथ हो ली.
“क्या करें जीजी! अम्मा प्यास के मारे मरी जा रही हैं, यहां पानी के दर्शन ही नहीं हो रहे.”
“ठहर, ये ले पानी!” बिम्मो ने अंटी से पानी की छोटी बोतल निकालकर कम्मो को दे दी, “जा तू अम्मा जी को पानी पिलाकर आ, ये कलसिया मुझे दे दे. पानी मिलेगा तो मैं भर दूंगी.”
बोतल लेकर कम्मो भागी, बिम्मो को धन्यवाद कहने का टेम भी नहीं था. अम्मा की जान का सवाल जो था!
“ले अम्मा, पानी पी ले.”
“जींवदी रह मेरी बच्ची.” गट-गट पानी गटगने के बाद अम्मा के दिल से आशीर्वाद की धारा बह निकली.
“ब‍िन पानी सब सून… गंभीर जल संकट से जूझ रहा गुजरात, तस्‍वीरें करा देंगी एहसास” एक लड़के की साइकिल पर रेडियो बोल रहा था.
“हम तो खुद ही प्यास की मूरत बनी हुई हैं, हमें ही देख लो.” कम्मो भागती जा रही थी.
“माननीयों की आंखों का पानी सूखने का नतीजा है दांडीची का जल संकट, अब आयोग के नोटिस से कुछ हो पाएगा?” जोर-जोर से भोंपू बोल रहा था.
“हमारी आंखों का पानी भी सूखने लग गया है. पहले तो कभी आंसू से ही खुद को तर कर लेते थे, भले ही वह तरावट खारी होती थी. अब तो तरसते-तरसते ही वह तरावट भी तरसने लग गई है.”
“महाराष्‍ट्र के एक गांव में महिलाएं जान जोखिम में डालकर थोड़े-से पानी के लिए 50 फीट गहरे कुएं में उतरने तक को मजबूर हो जाती हैं.” मुए भोंपू को आज ही सब कुछ बोलना था!
“पिछले बरस ऐसे ही तो गांव से चाची जी के मरने की खबर आई थी!” चाची जी के प्यार को याद कर कम्मो उदास हो गई थी.
”और वो लच्छो, वो तो सादी के दो दिनां बाद ही ससुराल से भाग आई थी. सुबह-सुबह रीती कलसी लेकर पहाड़ पर चढ़ना और फिर दिन चढ़े आधी कलसी लेकर पहाड़ से उतरना क्या आसान था! छोरी का सादी का सौक ही उतर गया.”
“आज तो पानी मिलने की उम्मीद ही नहीं है.” बिम्मो रीते बरतन लेकर दूर से आती हुई दिखी.
“क्या हुआ बिम्मो?”
“वो पाइप ही रिसने लाग गया था, जिससे पानी मिलवे था.” फूटे भाग्य की तरह मुश्किल से बिम्मो के बोल फूटे.
“बिम्मो वो पाइप नहीं, हमारी किस्मत ही रिस रही होगी! चल रीते बरतन लेकर ही घरवालों को मुंह दिखाएंगे. तूने तो जरा-सा पानी भी अम्मा जी के लिए दे दिया!”
“अरे अम्मा जी जैसे लोगन के आसीर्वाद से हम बिन पानी के भी जिंदा हैं! और सुन ये बरतन रीते नहीं हैं. इनमें हमारी आस है, हमारी प्यास है, फिर भी हम नहीं निरास हैं”
“इन बर्तनों में, भाईचारे की भावना, ममता की मिठाई, मेहनत की मलाई, खुशी की खुराक भी तो है! नहीं तो तू अम्मा जी के लिए पानी क्यों देती!”
“चल-चल, अब तो सूखे टिक्कड़ के बिना ही सोना पड़ेगा. सूखे टिक्कड़ भी दो बूंद पानी की जरूरत होती है न!”

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244