कहानी

कर्ज

अखिलेश न जाने कब तथाकथित पिता के चंगुल में फंस गया था, यह उसे याद नहीं आ रहा था. अब तो वही उसे जैसे उठाता था उसे उठना पड़ता और जैसे बैठाता बैठना पड़ता. आज उसे एक विवाह समारोह में बैरा बनने का हुक्म दिया गया था, जो उसे बजाना ही पड़ेगा. उसे वहां भेज दिया गया.
ऐप्रन और टोपी विशेष पहनकर वह बैरा बन गया और सबको जूस-भोजन-मीठा जो चाहिए पेश करता रहा. अपने मीठे स्वभाव के कारण वह सबका पसंदीदा बैरा बन गया.
लड़के वालों की तरफ से सम्मिलित विश्वेश्वर भी उसकी नफासत का मुरीद हो गया. न जाने क्यों उसे लग रहा था कि बहुत समय से वह उसे ही ढूंढ रहा था. उसने अपने पर्स से उन माता-पिता का फोटो निकालकर देखा, जिनको उसने वचन दिया था, कि वह उनके बेटे को अवश्य ढूंढ निकालेगा. वे रोज थाने में आकर बेटे की खोज की तफ्तीश करते थे. अपने माता-पिता की जगह उसने जेब में उनकी फोटो रखी थी. एक दिन उन्हें भी तो किसी ने उनके माता-पिता तक पहुंचाया था. वह कर्ज भी तो चुकाना था!
वे अखिलेश पर नजर रखे हुए थे. जैसे ही वह उन्हें जूस के लिए पूछने आया, उसने देख लिया कि उसके बाएं हाथ में छः उंगलियां थीं. अब तो उसे निश्चय ही हो गया, कि वह उन माता-पिता का रामलाल उर्फ रामू है. उन्होंने उसे आइसक्रीम ले आने को कहा. पेशे से सिपाही तो वे थे ही, इस बीच उन्होंने मन में एक तरकीब सोच ली.
जैसे ही अखिलेश आइसक्रीम ले आया, विश्वेश्वर ने उससे पूछा- “रामलाल सॉरी-सॉरी रामू को जानते हो?”
अखिलेश कुछ सोच में पड़ गया, “नाम तो सुना हुआ है साहब.” उसने कहा.
“इन्हें कहीं देखा है?” विश्वेश्वर ने उसे जेब से फोटो निकालकर दिखाते हुए पूछा.
“अच्छी तरह साहब, मुझे बड़े प्यार से खाना खिलाते थे.” जवाब मिला.
“कहां?”
“यह तो नहीं पता, पण अपुन को इनकी बहुत याद आती है.”
“यहां कहां रहते हो?”
“नालासोपारा में साहब.”
“किसके साथ?”
“जमनाप्रसाद के साथ. मेरे साथ चार लड़के और भी हैं, वह हमें अपना बेटा कहता है, जिस दिन हम काम करते हैं, उस दिन खाना खिलाता है, वरना मार!” अखिलेश भी न जाने कौन-सी रौ में बोल तो गया, पर डर के मारे उसका चेहरा पीला पड़ गया.
“चिंता मत करो बेटे, सब ठीक हो जाएगा. आज मैं तुम्हें अपनी गाड़ी में ले चलूंगा.”
सचमुच वह उसे अपनी गाड़ी में ले भी गया. खिड़की से ही एक आदमी दिख रहा था. “यही जमनाप्रसाद है?” विश्वेश्वर ने पूछा.
“साहब आप उनको कुछ मत बताना, नहीं तो तगड़ी मार पड़ेगी!” अखिलेश बहुत डरा हुआ था.
विश्वेश्वर का इशारा पाकर सादी पोशाक में उसके साथियों ने उस घर को चारों ओर से घेर लिया. जमनाप्रसाद से पूछताछ में उन्होंने सारे राज उगलवा लिए. सभी बच्चे एक ही गांव के थे.
सबको गाड़ी में बिठाकर वहां ले जाया गया. सबसे पहले तो विश्वेश्वर ने रामू के माता-पिता को थाने में आकर अपने बेटे को पहचानने को कहा. इतने सालों बाद भी उन्होंने दूर से ही अपने बेटे को पहचान लिया. विश्वेश्वर ने कुछ कागजी कार्रवाई के बाद अगले दिन उन्होंने रामू को उन्हें सौंपने का आश्वासन दिया. वे खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे. रामू की खुशी का भी ठिकाना नहीं था.
जमनाप्रसाद की शिनाख्त से बाकी बच्चों के घरों का भी पता चल गया.
एक ही रात में गांव में खुशहाली ने डेरा डाल दिया था. विश्वेश्वर की आंखों में खुशी की आंसू थे. उसने पांच गुना कर्ज जो चुका दिया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244