मुक्तक/दोहा

बचपन

बचपन की यादें सुखद,दें मीठे अहसास।
बचपन के दिन थे भले,थे बेहद ही ख़ास।।
दोस्त-यार सब थे भले,जिनकी अब तक याद।
कुछ ऊँचे अफ़सर बने,वे अब भी आबाद।।
कुछ पढ़ने में तेज थे,कुछ बेहद कमज़ोर।
शिक्षक थे सच्चे गुरू,रखा काम पर ज़ोर।।
शाला प्यारी थी बहुत,सुंदर थे सब कक्ष।
मेरी शाला भव्य थी,नालंदा-समकक्ष।।
दिन बचपन के स्वर्ण थे,मस्ती अरु आनंद।
नहीं फिक्र,चिंता रही,केवल मौज़ पसंद।।
होमवर्क था कष्टमय,खाई बेहद मार।
शाला के दिन यूँ समझ,पिटने का संसार।।
कुछ शिक्षक बेहद भले,कुछ हिटलर का रूप।
बच्चों को जो पीटकर,बने मार के भूप।।
पैदल ही दौड़े बहुत,शाला यद्यपि दूर।
खेल कबड्डी-दौड़ के,रखते व्यापक नूर।।
गिल्ली-डंडा खेल की,बहुत निराली शान।
कंचे-कौंडी खेल का,था हर पल जयगान।।
चॉकलेट-टॉफी भली,खाईं वर्षों-मास।
स्वाद गोलियाँ संतरा,का लगता था ख़ास।।
उड़ा पतंगें मस्तियाँ,बचपन था रंगीन।
पर पीटें दद्दा कभी,बन जाता तब दीन।।
सीखा हमने मन लगा,करना सद् आचार।
करना आदर सीखकर,पावन बने विचार।।
बचपन की यादें भला,ना भूलूँ  ताउम्र।
मीठापन जो दे रहीं,बना रहीं अति नम्र।।
             — प्रो.(डॉ)शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल-khare.sharadnarayan@gmail.com