कविता

मेरे पापा

 

बात 2000 की है, जब पिता जी के त्रयोदश संस्कार के बाद मैं मम्मी, बहन और भाई के साथ पापा के कार्यस्थल स्थिति मकान पर मिहींपुरवा, बहराइच गया।

मैं आपको बताता चलूँ कि मुझे अपने मम्मी पापा के साथ रहने का सौभाग्य बहुत कम ही मिला। मैं बड़े पिताजी और बड़ी माँ के साथ ही ज्यादा रहा।

मुझे पता था कि पापा का लेनदेन मासिक ही रहता था। चाहे वो किराना वाले का हो, मेडिकल स्टोर या साइकिल, पान व अन्य का। मैं भी आया जाया करता था, इसलिए कुछ दुकानों और दुकानदारों को तो मैं भी जानता था। कुछ का पता करके सब का एक एक रुपये का हिसाब किया। मेडिकल वाले ने शेष बची सारी दवाएं स्वयं ही वापस मांग लिया। शेष जो देय राशि बची उसे देकर हिसाब कर दिया। चाय ,पान, सब्जी वाले या जिसने भी जितना बताया कि उनका इतना शेष है।सबका बिना किसी वाद प्रतिवाद के चुकता करता गया।

मम्मी ने बताया कि एक माह पूर्व तीन कुंतल गेहूं किसी से मंगाया था। कौन था, क्या नाम था, कहाँ के थे, उन्हें नहीं पता था।बस केवल इतना जानती थी कि वे मुस्लिम हैं।

मेरे लिए दुविधा की स्थिति थी, फिर भी मैंने हार नहीं मानी और पापा के परिचितों, साथी कर्मचारियों से जानकारी लेते हुए उन्हें खोज ही लिया और जब मैंने उन्हें बताया कि मैं उनका बेटा हूँ और पापा द्वारा लिए गेहूं के पैसे देने आया हूँ।आप भी बता दें, तो वो मैं आपको देकर मुक्त हो सकूँ।

आश्चर्य की बात है कि उन्होंने मुझसे जो कहा उसे मेरा सिर झुक गया। उन्होंने कहा कि दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। मैं तुमसे पैसे लूँगा। मेरा और श्रीवास्तव जी का जो संबंध था, तुम्हें नहीं पता। जो भी लेन था वो हमारे और उनके बीच था। अब वो नहीं रहे तो सारा लेन देन बराबर हो गया। दोबारा ऐसी बात कभी मत कहना। वो मेरे लिए बड़े भाई से कम नहीं थे।

मैंनें देखा कि उनकी आँखें नम हो गई थीं।

फिर वे मुझे लेकर पास के होटल में चाय पिलाया और आश्वस्त किया कि किसी भी बात की चिंता मत करना, कभी भी कोई परेशानी हो, नि: संकोच कहना।

मैं उनके भावों के प्रति नतमस्तक होने को बाध्य हो गया।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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