धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मानव की मूल प्रकृति तो है सरल स्वाभाव

हमें मानव भव मिला है उसकी मूल कारण मेरे चिन्तन से प्रकृति तो है सरल स्वभाव वाली । 9 दुर्गम तिर्यंच घाटियां पार करके मुश्किल से हम भव भवान्तर मे भटकते हुए दुर्लभ मनुष्य शरीर जो मिला है और आज तक कितनी ही बार मिला भी हो सकता है । हम अभी तक नहीं सम्भले,भटक रहे है इसी भव भवान्तर के चक्कर में। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने सम्बोधि पुस्तक में मन की प्रसन्नता का राज संवेगों पर नियंत्रण रखना,आग्रही विचारों का निरोध, विधेयात्मक चिंतन आदि मन को स्वस्थ एवं प्रसन्न रखते हैं। दलाई लामा कहते हैं की दया और करूणा है आदमी की मूल वृत्ति। आचार्य महाप्रज्ञ भी देते थे विशेष जोर कि आदमी की होनी ही चाहिए ऐसी ही प्रकृति। ये ही हमें सही से आत्मिक खुशी देते हैं जिसके लिए हम जीते हैं।मन में प्रसन्नता का मधुर श्रोत बहता है । जब हम अपनों और दूसरों से स्नेह और करूणा पाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं की हमारा स्वभाव नहीं है की कलह,झगडों का मुख्य कारण।बल्कि है यह हमारी असंतुलित बुद्धि। बुद्धि और अच्छे स्वभाव का मेल ही है इस विसंगति का निवारण है । समस्त जीवात्माओं में सर्वोत्तम माना जाता है आदमी क्योंकि प्रकृति ने की है उसे ही प्रदान एक विलक्षण ऋधि जिसे कहते हैं हम बुद्धि। हमें अपने आप पर दृढ़ विश्वास हो कि हम अपनी आत्मा का शुद्ध स्वरूप पा सकते हैं । हमारे सामने वो मार्ग प्रशस्त किया है हमारे तीर्थंकरों ने,आगम वाणी में। गुरुदेव तुलसी जी ने भी श्रावक सम्बोधमें हमें क्यों चले निषेधात्मक चिंतन ,हो सदा विधेयात्मक भाव ,सम्यक दर्शन के ये स्वभाव। हम अपने दुर्व्यवहार ,दुर्गुणों को त्यागकर स्वस्थ और प्रसन्न मन का राज पा सकते हैं । मानव की मूल प्रकृति है दोष रहित सरल स्वभाव वाली । दुनियादारी के चक्कर में इस पर दुष्प्रभाव पड़ जाता है ।चिन्तनीय बिंदु यह है की इससे सही से कैसे बचा जाए । अन्यथा जीवन तो है असीम आनन्द का सिंधु।
ओम् अर्हम सा !

— प्रदीप छाजेड़

प्रदीप छाजेड़

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