कविता

खुशहाली दिवस

 

आज की भागती दौड़ती जिंदगी में

हमसे बहुत कुछ छूटता जा रहा है

आधुनिकता की चाशनी में

हमारा जीवन भी मशीन बनकर रह गया है।

हमसे हमारे खुशहाल जीवन के

कई सूत्र छूटते जा रहे हैं

अपने और अपनों के लिए समय बचा नहीं

रिश्तों में आत्मीयता भी खत्म सी हो गई है

हमारी संवेदनाएं श्मशान में, जैसे दफन सी हो गई हैं।

हमें किसी के दर्द का

अब अहसास भी कहां होता है?

सब कुछ औपचारिकताओं में

अब आज निपटता जा रहा है

खुशहाली भी हमसे कोसों दूर चली गई हैं

क्योंकि खुशियों से ज़्यादा

संपन्नता की भूख बढ़ गई है।

आधुनिकता का हम शिकार होते जा रहे हैं,

जीवन भी जीना भूल जैसे तैसे ढो रहे हैं

संतोष तो जैसे शब्द कोष में खो गया है

इंसान महज पुतला भर बनकर रह गया है।

यह विडंबना नहीं तो क्या है

खुद हमें खुश भी रहना चाहिए

यह याद रखने के लिए

खुशहाली दिवस तक मनाना पड़ रहा है

खुशियों का बाजारीकरण हो रहा है

खुशियां मन का भाव नहीं सामान होती जा रही हैं

आज के बाजार में सरेआम बिक रही हैं।

इंसान तेरी लीला अजब निराली है

तेरे जीवन में कहाँ बची खुशहाली है?

आधुनिकता की दौड़ में

तूने खुद ही इसका सौदा कर दिया है।

ईमानदारी से बताइए

हम आप कितने खुश हैं?

 

अपनी खुशियों के हम ही तो सौदागर हैं

दिन रात थोड़ा और, थोड़ा और

धन दौलत, सुख, सुविधाओं की खातिर

दिन रात अनवरत भाग रहे हैं,

भूख  हमारी और बढ़ती जा रही है

और हम दौड़ते हांफते भाग रहे हैं।

आज हम अपने आप से ही लाचार हैं

तभी तो खुशहाली दिवस का आया विचार है

क्योंकि हमारी खुशियों पर हमारा ही पहरा हो रहा है

हमारी खुशियों की औपचारिकता का

पैमाना बता रहा है,

वास्तव में हमारी खुशियों का संसार भी

अब वीरान हो रहा है।

अब आप क्या करेंगे ये आप ही जानिए

खुद खुश रहने का विचार कीजिए

या खुशहाली दिवस की औपचारिकताओं में

जीवन की खुशियों को ढोते रहिए।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921