कविता

ख्व़ाब में छू कर तुम जो चले गए

ख्व़ाब में छू कर तुम जो चले गए
तन मेरा और  निखर सा गया
जाने कैसा रंग
मेरे कपोलो पर छा सा गया
न तो गुलाबी
न तो फागुनी
न ही वासंती
वो स्पर्श का रंग था
तुम्हारे स्पर्श का रंग
ऐसा लगा कि जैसे लौह ने पारस छुआ हो
और वो कुंदन सा स्वर्णिम हुआ हो
निखरा-निखारा,संवरा-संवरा
उजला सा भीना-भीना
बिलकुल अलग सा
तुम्हारी खुशबू मेरी साँसों में रच सी गयी
मेरे मन के कँवल को महका सी गयी
खिला रंग और ये खुशबू
सिर्फ तुम्हारे  स्पर्श का असर है
ये मौसम , ये हवा
सब इस राज़ को जानने लगे है
तभी तो रह-रह के मुझे छेड़ने लगे है
हवा भी आँचल उड़ाती है
अपने झोंको से
तुम्हारा अहसास कराती है
मौसम भी अंगडाई दे जाता है
और बांहों में अपनी भर जाता है
फिर धीरे से
कानो में मिश्री सा
तुम्हारा ही नाम गुनगुना जाता है
और मैं लजा जाती हूँ
धडकते दिल में
तुम्हारी ही आहट पाती हूँ
और तुम्हे अपने करीब
बेहद करीब पाती हूँ
इतना कि
जैसे कोई लता आधार पर लिपट जाए
धरा भी अम्बर की बांहों में सिमट जाए
बस मैं भी यूँ ही
सिमटी सिकुड़ी सी नज़र आती हूँ
और तुम्हारे  प्यार के रंग में
रंग जाती हूँ………

One thought on “ख्व़ाब में छू कर तुम जो चले गए

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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