उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (दूसरी कड़ी)

अब कृष्ण भीष्म के बारे में सोचने लगे।

अत्यन्त कठोर प्रतिज्ञा करने और प्रत्येक परिस्थिति में उसका पालन करने के कारण राजकुमार देवव्रत अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती बन गये थे और भीष्म नाम से प्रख्यात हो गये थे। भीष्म ने प्रत्यक्ष भगवान परशुराम से धनुर्वेद की शिक्षा पायी थी और वे इतने महान् धनुर्धर थे कि संसार में कोई भी उनको जीतना तो दूर रहा, युद्ध क्षेत्र में उनका सामना करने का साहस भी नहीं कर सकता था। वे सम्पूर्ण कुरुवंश में ‘पितामह’ के नाम से पुकारे जाते थे और स्वयं कृष्ण उनको पितामह कहते थे तथा बहुत सम्मान भी करते थे। इसमें कृष्ण को कोई सन्देह नहीं था कि भीष्म अपने युग के महान् और अप्रतिम चरित्र थे और इस कारण सभी के लिए वन्दनीय और पूज्य थे।

लेकिन…. और यह ‘लेकिन’ बहुत बड़ा था…. उनकी महानता से न तो कुरुवंश को कोई लाभ हुआ और न संसार को। उनकी महानता में ही कुरुवंश के विनाश का बीज छिपा हुआ था। अगर वे साधारण राजकुमारों की तरह विवाह कर लेते और सन्तानोत्पत्ति करते, तो भले ही वे उतने महान् नहीं माने जाते, लेकिन कुरुवंश का गौरव अक्षुण्ण बना रहता। परन्तु यह सब सोचने से अब क्या लाभ? जो कुरुवंश के प्रारब्ध में लिखा है वह तो होगा ही।

भीष्म जानते थे कि विचित्रवीर्य स्वयं किसी राजकुमारी को प्रभावित करने में समर्थ नहीं है और कोई भी राजा अपनी पुत्री का विवाह उनसे करना पसन्द नहीं करेगा, भले ही वे हस्तिनापुर की महारानी क्यों न कहलायी जायें। कोई भी राजकुमारी उनसे विवाह करके अपना भविष्य नष्ट नहीं करना चाहेगी। लेकिन हस्तिनापुर को राज्य सिंहासन के लिए योग्य उत्तराधिकारी चाहिए ही था। इसका दायित्व भीष्म ने अपने ऊपर लिया।

वे काशी की राजकुमारियों के स्वयंवर में बिना बुलाये पहुंचकर सभी राजाओं के सामने तीनों राजकुमारियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को इस तरह ले आये, जैसे कोई बेजुबान गायों को हांक ले जाता है। वहां उपस्थित न किसी राजा ने और न स्वयं काशीराज ने उनका विरोध करने का साहस किया, क्योंकि इसका परिणाम वे जानते थे। रास्ते में एक छोटे से राज्य के राजा शाल्व ने अम्बा के लिए भीष्म का विरोध किया और युद्ध लड़ने का साहस दिखाया, परन्तु भीष्म ने शीघ्र ही उसको पराजित कर दिया, यद्यपि बिना प्राण लिये उसे छोड़ दिया।

तीनों में सबसे बड़ी राजकुमारी अम्बा मन ही मन शाल्व से प्रेम करती थी, परन्तु वह यह समझती थी कि भीष्म उनको अपने साथ विवाह करने के लिए ले जा रहे हैं। यह सोचकर वह स्वयंवर में और रास्ते भर कुछ नहीं बोली। लेकिन हस्तिनापुर आकर जब उसे पता चला कि उसका विवाह भीष्म से नहीं बल्कि उनके रोगी और असमर्थ सौतेले भाई विचित्रवीर्य से किया जाएगा, तो वह रोष में भर गयी और उसने बता दिया कि मैं शाल्व से प्रेम करती हूँ और उसके पास जाना चाहती हूँ।

भीष्म ने उसको नहीं रोका और स्वतंत्र कर दिया। लेकिन शाल्व ने भी उसको ठुकरा दिया, तो वह वापस आयी और भीष्म के ऊपर जोर डालने लगी कि वे स्वयं उससे विवाह करें। लेकिन भीष्म ने उसके लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ना अस्वीकार कर दिया। इस पर वह भीष्म के प्राणों की शत्रु बन गयी, क्योंकि वह अपनी दुर्दशा के लिए भीष्म को कारण मानती थी, यद्यपि इसका कारण वह स्वयं थी. अगर वह काशी में ही या मार्ग में भी यह बता देती कि मैं शाल्व से प्रेम करती हूँ, तो भीष्म उसको वहीँ स्वतंत्र कर देते। लेकिन अपनी मूर्खतावश वह हस्तिनापुर चली आई। उसके बाद भीष्म से बदला लेने के लिए उसने क्या-क्या उद्योग किये यह एक अलग कहानी है। उसके बारे में सोचकर कृष्ण के मुखमंडल पर तनावग्रस्त होने पर भी एक व्यंग्यात्मक मुस्कान तिर गयी।

अम्बा ने जो भी ठीक समझा किया और उसका परिणाम भुगता, परन्तु उसकी दोनों छोटी बहिनों ने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया। दोनों का विवाह साधारण समारोह में सम्राट विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। उसके बाद राजमाता सत्यवती और भीष्म के साथ ही समस्त हस्तिनापुरवासी सिंहासन के उत्तराधिकारी के उत्पन्न होने की आशा और प्रतीक्षा करने लगे।

परन्तु नियति को यह स्वीकार नहीं था। इतने उद्योग करने के बाद भी हस्तिनापुर और कुरुवंश के दुर्भाग्य का अन्त नहीं हुआ। सम्राट विचित्रवीर्य सन्तानोत्पत्ति के योग्य प्रारम्भ से ही नहीं थे। अत्यन्त निर्बल होने के बाद भी वे भोगविलास में रत हो गये। इसी कारण उनका शरीर जर्जर हो गया और वे असमय ही कालकवलित हो गये। उनकी दोनों सर्वगुणसम्पन्न सुन्दरी पत्नियां विधवा हो गयीं। समस्त हस्तिनापुर पर दुर्भाग्य वज्र बनकर टूट पड़ा। यों भीष्म ने राजकार्य में कभी शिथिलता नहीं आने दी और न अपनी सीमाओं को अरक्षित होने दिया, परन्तु बिना राजा के सिंहासन सूना पड़े रहना ही सबसे बड़ा दुर्भाग्य था।

महारानी सत्यवती के शोक का पारावार नहीं था। अपने जिन पुत्रों को सिंहासन पर बैठाने के लिए उन्होंने और उनके पिता ने विचित्र और कठोर शर्त रखी थीं, वे पुत्र उनको सदा के लिए छोड़कर जा चुके थे। अब उन्होंने सोचा कि कुरुवंश और हस्तिनापुर को इस शर्त से मुक्त कर देने में ही सबका कल्याण है। यह निश्चित होते ही उन्होंने भीष्म से निवेदन किया कि अब उनको अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहने का कोई अर्थ नहीं है। राज्य की आवश्यकता और प्रजा के हित के लिए उन्हें हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठ जाना चाहिए तथा सामान्य रीति से विवाह करके सन्तानोत्पत्ति करनी चाहिए, ताकि हस्तिनापुर को कोई उत्तराधिकारी मिल जाये। सत्यवती के पिता ने भी भीष्म से कहा कि मैं आपको अपनी शर्त से मुक्त करता हूँ, क्योंकि देश के हित को देखते हुए अब उसको बनाये रखना उचित नहीं होगा।

भीष्म महारानी सत्यवती का बहुत आदर करते थे और उनको अपनी माता जैसा सम्मान देते थे। वे राजमाता की इच्छा को अपने लिए बाध्यकारी मानते थे। परन्तु इस विषय में वे सत्यवती की इच्छा का सम्मान न कर सके। वे किसी भी परिस्थिति में अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। वंश चले या न चले, राज्य रहे या न रहे, पर उनकी प्रतिज्ञा नहीं टूट सकती।

यह सब सोचते-सोचते कृष्ण के मन में उस वृद्ध के प्रति सम्मान उभर आया। अपनी प्रतिज्ञा पर इस प्रकार दृढ़ रहने वाले व्यक्ति संसार में दुर्लभ होते हैं। उनकी इस प्रतिज्ञा से हस्तिनापुर को क्या लाभ हुआ और हुआ भी या नहीं यह प्रश्न अलग है। प्रत्यक्षतः इससे कोई लाभ नहीं हुआ और अन्ततः भयंकर हानि ही हुई। फिर भी कृष्ण के मन में भीष्म के प्रति सम्मान लेशमात्र भी कम नहीं हुआ।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com