उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (ग्यारहवीं कड़ी)

कृष्ण को याद है कि उस समय वे द्वारिका में थे, लेकिन जैसे ही उनको कुरुओं के साम्राज्य के विभाजन होने की योजना की भनक लगी, वे हस्तिनापुर आ धमके। उनके साथ बड़े भाई बलराम और पिता वसुदेव भी थे। सभी इस बात का निश्चय करके आये थे कि पांडवों के साथ अब अन्याय नहीं होने देंगे। भले ही बलराम दुर्योधन के गदा युद्धकला के गुरु थे, लेकिन पांडवों के साथ कोई अन्याय हो, इसको वे भी स्वीकार नहीं कर सकते थे। जब तक यादव हस्तिनापुर पहुंचे, तब तक इस बात का निर्णय हो चुका था कि पांडवों को खाण्डवप्रस्थ का क्षेत्र दिया जायेगा और हस्तिनापुर के साथ शेष क्षेत्र दुर्योधन को दिया जाएगा। पारिवारिक कलह को और अधिक बढ़ने से रोकने के लिए युधिष्ठिर ने इस अन्यायपूर्ण विभाजन को भी स्वीकार कर लिया था।

यादव इस निर्णय को बदलवाने की कोशिश नहीं कर सकते थे, क्योंकि युधिष्ठिर ने भी इसको स्वीकार कर लिया था, लेकिन वे इतना तो कर ही सकते थे कि युधिष्ठिर यहां से खाली हाथ न जायें और धन सम्पत्ति, कर्मचारियों, सेवकों तथा सेना का उचित भाग उनको प्राप्त हो। कौरवों की राजसभा में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह बात रखी कि विभाजन न्यायपूर्ण विधि से किया जाना चाहिए। दुर्योधन ने इस बात पर बहुत विवाद किया, लेकिन अन्ततः धृतराष्ट्र इस बात पर सहमत हो गये कि जो सेवक, राजकर्मचारी और सैनिक पांडवों के साथ जाना चाहते हैं, उनको जाने दिया जाये तथा राज्य कोष का भी एक भाग युधिष्ठिर को दिया जाए।

इतना ही नहीं, इस बात के लिए भी राजा धृतराष्ट्र की सहमति ले ली गयी कि जो प्रजाजन हस्तिनापुर में नहीं रहना चाहते, वे अपनी समस्त चल सम्पत्ति को लेकर खांडवप्रस्थ जाने के लिए स्वतंत्र हैं, उनको न रोका जाय। इस निर्णय से समस्त हस्तिनापुर में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी और बहुत से प्रजाजन, जो दुर्योधन के दमनकारी राज से पीड़ित थे, अपने परिवार और सम्बंधियों को साथ लेकर तत्काल खांडवप्रस्थ चलने के लिए उद्यत हो गये। उनको देखकर बहुत से ऐसे प्रजाजन भी खांडवप्रस्थ जाने लगे, जिनको प्रत्यक्ष में कौरवों से कोई असुविधा नहीं थी।

पांडवों ने किसी तरह नावों द्वारा सभी नागरिकों को यमुना नदी पार करायी और खांडवप्रस्थ में पैर रखा। घनघोर जंगल के क्षेत्र में नया नगर बसाना कोई सरल कार्य नहीं होता। प्रारम्भ में वे सब यमुना नदी के किनारे ही रेती पर जम गये। फिर किनारे के कुछ वृक्ष काटकर और जगह बनाकर उन्होंने कुटियों का निर्माण किया। सैनिकों को जंगली पशुओं से नागरिकों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया। फिर क्रमशः जंगलों को काटा गया और नगर का निर्माण किया गया। हस्तिनापुर से साथ गये हुए श्रमिकों और वास्तुविदों ने इसमें बहुत सहायता की। लगभग 6 माह के कठोर परिश्रम के बाद निवास के योग्य राजधानी बन गयी। पांडवों ने श्री कृष्ण की सहमति से उस नगर का नाम देवराज इन्द्र के नाम पर ‘इन्द्रप्रस्थ’ रखा।

खांडवप्रस्थ के जंगलों में उन दिनों नाग जाति के कुछ लोग रहते थे। उनको हटाने के लिए अर्जुन को उनके साथ युद्ध करना पड़ा। इससे नाग पराजित होकर भाग गये। जंगल साफ करने के लिए उसके कुछ भाग में आग भी लगानी पड़ी थी। परन्तु अन्ततः इन्द्रप्रस्थ का निर्माण हुआ, जो किसी भी तरह हस्तिनापुर से कम नहीं थी। कृष्ण के आदेश पर वास्तुविदों ने बहुत अच्छे भवनों का निर्माण कर दिया था, जो एक सम्राट की राजधानी के उपयुक्त थे।

महाराज युधिष्ठिर का शासन सब प्रकार से श्रेष्ठ था। वे प्रजाजनों से न्यूनतम कर ही लेते थे। इससे सभी प्रजाजन उनसे बहुत संतुष्ट रहते थे। धीरे-धीरे इन्द्रप्रस्थ की ख्याति अन्य राज्यों तक पहुंची, तो अन्य राज्यों के व्यापारी भी वहां व्यापार के लिए आने लगे और शीघ्र ही इन्द्रप्रस्थ हस्तिनापुर से भी बहुत आगे निकल गया। इन्द्रप्रस्थ की समृद्धि और महाराज युधिष्ठिर के सुशासन से आकर्षित होकर अन्य राज्यों के नागरिक भी वहाँ स्थायी रूप से रहने के लिए आने लगे।

जब इन्द्रप्रस्थ में जनजीवन सामान्य हो गया, तो कृष्ण ने युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने की राय दी। युधिष्ठिर उन दिनों कृष्ण से परामर्श किये बिना कोई बड़ा निर्णय नहीं करते थे। उन्होंने इस परामर्श को मान लिया, लेकिन इसकी बाधाओं की चर्चा की। इसमें सबसे बड़ी बाधा मगध नरेश जरासन्ध था। उसने आसपास के आर्य राजाओं पर अपना आतंक स्थापित कर रखा था। स्वयं कृष्ण की मथुरा उसका आतंक भोग चुकी थी। वैसे जरासन्ध शिव का भक्त था, लेकिन शिव को 108 राजाओं की बलि चढ़ाने के लिए उसने लगभग एक सौ राजाओं को बन्दी बना रखा था और उनकी संख्या पूरी हो जाने पर बलि चढ़ाने वाला था। इन दोनों कारणों से कृष्ण को जरासन्ध का अन्त कराना सबसे आवश्यक लगा।

युधिष्ठिर चाहते तो मगध पर सीधे चढ़ाई कर सकते थे और जरासन्ध को हरा सकते थे, लेकिन कृष्ण की राय थी कि इसमें मगध की जनता का कोई दोष नहीं है, अतः युद्ध करना उचित नहीं होगा। जरासन्ध को द्वंद्व युद्ध में पराजित किया जा सकता है। यह सलाह युधिष्ठिर को अच्छी लगी।

एक दिन कृष्ण, भीम और अर्जुन ब्राह्मणों का वेश बनाकर मगध की राजधानी गिरिव्रज गये। वहाँ वे राजमहल की दीवार फाँदकर पहुँचे। वहाँ उन्होंने जरासन्ध से दान में द्वंद्व युद्ध माँगा। जरासन्ध ने स्वीकार कर लिया। तब भीम और जरासन्ध का मल्लयुद्ध हुआ, जिसमें भीम ने जरासन्ध को मार डाला। जरासन्ध की मृत्यु के बाद भी कृष्ण ने उसका राज्य स्वयं नहीं लिया, बल्कि जरासन्ध के पुत्र सहदेव को वहाँ का सम्राट बना दिया। बन्दी राजाओं को भी श्री कृष्ण ने मुक्त कराया। इस प्रकार पांडवों के पक्ष में सैकड़ों छोटे-बड़े राजा हो गये। ये सभी घटनायें कृष्ण को अच्छी तरह याद थीं, जैसे कल ही घटी हों।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

10 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (ग्यारहवीं कड़ी)

  • सविता मिश्रा

    rochak

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, बहिन जी.

  • अजीत पाठक

    महाभारत खुद भी रोचक है. उस पर यह उपन्यास और भी रोचक है.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई जी.

  • धनंजय सिंह

    मैंने आपके उपन्यास कि अब तक की सारी कड़ी पढ़ी हैं. आप अच्छा लिखते हैं.

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, बन्धु. अगर किसी कड़ी में कोई कमी लगे तो अवश्य बताएं.

  • जगदीश सोनकर

    आपकी शैली बहुत रोचक है. आगे की कड़ीयो का इंतज़ार है.

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद.

  • नीलेश गुप्ता

    आपका उपन्यास अच्छा लग रहा है.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई.

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