गीतिका/ग़ज़ल

उन्वान तुम हो

तुम आ बसों जो मुझमे तो साँसे चल पड़े फिर से
फ़क़त एक जिस्म हम मैं, मेरी जान तुम हो

नहीं मालूम मेरा मज़हब मेरी जात क्या है
बस इतना याद है मुझे कि, मेरी अज़ान तुम हो

मैं इक खद हूँ गुमनाम हा शायद यहाँ
मगर जानता हूँ मेरे खद की पहचान तुम हो

एक रुदाद कि मानिंद ही तो है रिश्ता तेरा मेरा अधृत
सब को खबर है , इस रुदाद का उन्वान तुम हो

तुझसे परे कुछ और सीखने-जानने कि ख्वाहिश नहीं हमे
इल्म तुमसे,कायदे तुम्ही,मेरा कुरान भी तुम हो

One thought on “उन्वान तुम हो

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

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