कविता

चपाती

चपाती कितनी तरसाती
गरीबों की थाली उसे
नजर नहीं आती

इतनी शान बान
अचंभित हर इंसान
चांदी के बर्तनो में
परोसी गयी चपाती

पर यह क्या, हाथ में रह
गए सिर्फ ड्रिंक और
चमचमाती थाली में
छूट गयी चपाती .

झूठन में फेककर
कचरे में मिलकर
पुनः जमीं पर आती
भूखे लाचार इंसानो
की भूख मिटाती,
नहीं तो वहीँ पे पड़ी -पड़ी
मिटटी में मिल जाती चपाती .

चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती

किसान बोये धान
और सबको दे मुस्कान
दो जून रोटी की खातिर
छोटे बड़े मिलकर
करते श्रमदान
पर लुटेरो को उनकी
पीड़ा नजर ही नहीं आती
छीन कर ले जाते निवाला
लोलुपता ही उन्हें नजर आती .

तन की भूख मिटाने को
बस मन में है लगन
आएगा कुछ धन तो
मिट जाएगी पेट की अगन
पर माथे की शिकन मिट
ही नहीं पाती , और
महँगी हो जाती चपाती .

श्रम का नहीं मिलता मोल
दुनिया भी पूरी गोल
थाली में आया सिर्फ भात ,
सूनी कर गरीबो की आस
पंच सितारा,होटलो
और बंगले में
इठला के चली गयी चपाती .

—  शशि पुरवार

4 thoughts on “चपाती

  • शशि बहन, पहली दफा रोटी पे ऐसी कविता पडी . मज़ा ही आ गिया . सच ही है , रोटी कितनी महान है हमारी जिंदगी में . इस के बगैर हम जिंदा नहीं रह सकते लेकिन यही रोटी के लिए कोई तरस रहा है कोई इस लिए कूड़े में फैंक रहा है कि इस से ज़िआदा वोह खा नहीं सकता , ज़िआदा पक्क गई . कोई सड़कों पे रोटी के लिए मांग रहा है तो किसी को घर की रोटी सवाद नहीं लगती और वो बर्गर पिज़ा खाने जा रहा है .

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! चपाती जैसी चीज पर अच्छी कविता.
    सत्य की परिभाषा बहुत छोटी है,
    उसका नाम ‘रोटी’ है.

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