उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 12)

कक्षा 9 में मेरा छात्र जीवन लगभग घटना विहीन रहा। मैं कक्षा में खूब मन लगाकर पढ़ा करता था और अपनी कक्षा के सर्वश्रेष्ठ चार-पांच छात्रों में गिना जाता था। हालांकि इस वजह से मैं कई साथी लड़कों की ईर्ष्या का पात्र भी बना रहता था और कुछ लड़कों से झगड़ा चलता रहता था। वार्षिक परीक्षा में कक्षाध्यापक श्री भट्ट जी ने मेरी अंकतालिका पर ‘संतोषजनक’ शब्द टिप्पणी के रूप में लिखा था, जिससे मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई।

वह वर्ष हम सब भाईयों के लिए सफलता का वर्ष था। मैं स्वयं तो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ ही था, मेरे अन्य सभी भाई भी उत्तीर्ण हो गये थे। सबसे बड़े भाई साहब जो पिछली साल बी.एससी. प्रथम वर्ष में फेल हो गये थे और कृपांक मिलने के बाद ही उत्तीर्ण हुए थे, इस वर्ष बी.एससी. द्वितीय वर्ष में स्पष्टतया उत्तीर्ण हो गये।

उनसे छोटे भाई श्री राममूर्ति जी, जो पिछले वर्ष सी.पी.एम.टी. में पास नहीं हो पाये थे और बी.एससी. कर रहे थे, इस बार न केवल बी.एससी. में पास हो गये बल्कि सी.पी.एम.टी. के साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय की मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गये। आशा के अनुरूप उन्होंने आगरा के ही सरोजिनी नायडू मेडिकल काॅलेज में एम.बी.बी.एस. में प्रवेश ले लिया। उनसे छोटे भाई श्री गोविन्द स्वरूप भी अपनी कक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए।

कक्षा 9 का परीक्षाफल लेकर मैं गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने अपने गाँव में आया। वहाँ मेरे साथ वह घटना घटी, जिसने न केवल मेरे जीवन में तूफान ला दिया बल्कि मेरा भविष्य भी लगभग अन्धकारमय कर दिया। अपने अन्धकारमय लगने वाले भविष्य में प्रकाश की किरणों का संचार मैं किस तरह कर सका, यह किसी भी व्यक्ति के लिए कौतूहल और प्रेरणा का विषय हो सकता है।

उन दिनों बहुत गर्मी पड़ रही थी। गाँव में खुला आसमान होने के कारण गर्मी और लू की मात्रा कुछ ज्यादा ही थी, लेकिन अपनी सफलता के कारण कुछ निश्चिन्त होकर मैं घूमता फिरता था, खेलता था और कभी-कभी अपने गाँव के पास बहने वाली नहर, जिसे बम्बा कहा जाता है, के पानी में भी नहाता था। अचानक एक दिन मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरे कान बन्द होते जा रहे हैं। मेरा बायां कान काफी दिन पहले से ही खराब था, जिसका ज्ञान मुझे तब तक नहीं हो पाया था। इस बार मेरा दायां कान भी खराब होने लगा था। शुरू-शुरू में मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे दायें कान में पानी सा भर गया हो, जो कभी खुल जाता था और कभी बन्द हो जाता था। यह हालत लगभग आठ दिन रही। तब तक बन्द होने का समय लम्बा होता जा रहा था। आठ दिन बाद ऐसा हुआ कि मेरा दायां कान भी सदा के लिए खराब हो गया और मेरी दुनिया तरह शब्दहीन हो गयी।

उसी के साथ मैं बहुत तेज बीमार पड़ गया, जहाँ तक मुझे याद है मुझे बुखार नहीं था, केवल पेट की कोई बीमारी थी, जिससे मुझे उल्टी और दस्त हो गये थे। कई डाक्टरों और वैद्यों से इलाज कराने पर भी मेरा पेट ठीक होने पर नहीं आता था। आखिर अपने गाँव के ही एक वयोवृद्ध वैद्य श्री जीवाराम जी सिंघल के कहने पर मुझे मोर की पंख जलाकर शहद में मिलाकर चटाई गई, जिससे मैं दो दिन में ही ठीक हो गया। मेरी जिन्दगी तो बच गयी, लेकिन मेरे कान सदा के लिए खराब हो चुके थे, जिसकी किसी के पास कोई दवा नहीं थी।

यहाँ मुझे एक घटना याद आती है। मुझे देखने एक नये डाक्टर साहब आये हुए थे, जो शायद नये-नये एम.बी.बी.एस. करके निकले थे। मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ था और काफी कमजोर था। इसलिए मैंने डाक्टर साहब से कहा- ‘कोई टाॅनिक लिख दो’। डाक्टर चौंक पड़े। उन्होंने सोचा होगा कि यह गाँव का गँवार, पागल सा दिखने वाला, मरियल सा लड़का ‘टाॅनिक’ शब्द से परिचित कैसे हो सकता है। तब मेरी माताजी ने उन्हें बताया- ‘डाक्टर साहब, यह बहुत होशियार है। बीमार पड़ा हुआ है, इसलिए पागल सा लग रहा है।’ डाक्टर साहब का समाधान हुआ या नहीं, मैं नही जानता, लेकिन मैंने इतना अवश्य अनुभव किया था कि वे लगभग अविश्वास से मेरी तरफ देखते रहे थे।

जब घरवालों और गाँव के लोगों को लगा कि अब कान अपने आप ठीक नहीं हो सकेंगे, तो उन्होंने मुझे आगरा दिखा लाने की राय दी। जल्दी ही मैं अपने भाई श्री राममूर्ति के साथ आगरा गया और वहाँ एक बहुत अनुभवी डाक्टर को दिखाया। उन्होंने मुझे इंजेक्शन और गोलियाँ लेने को कहा और ठीक होने की संभावना बतायी। लेकिन न जाने क्यों मुझे लग रहा था कि अब मैं कभी ठीक नहीं हो सकूँगा। फिर भी मैंने सारी दवाइयाँ नियम से लीं। एक माह बाद उन्होंने फिर आने को कहा था। इस बार उन्होंने सिर्फ एक दवा बदल दी, लेकिन मुझे फायदा न होना था, न हुआ।

लगभग दो माह तक मैं पागलों जैसी हालत में रहा। मेरे कानों में तरह-तरह की भयानक गर्जनाओं जैसे आवाजें लगातार आती रहती थीं, जिनसे आतंकित होकर मैं घंटों चुपचाप बैठा रहता था। कई लोग प्रायः कहते थे कि इस लड़के की जिन्दगी खराब हो गयी। मुझे भी शुरू में ऐसा लगा कि अब दुनिया में मेरा जीना लगभग बेकार है और हमेशा मुझे दूसरों का सहारा लेना पड़ेगा। मेरे लिए संतोष की बात सिर्फ यह थी कि मैं साक्षर हो गया था और अच्छी तरह बोल भी लेता था। यदि किसी को मुझसे कोई बात कहनी होती थी तो उसे लिखकर बताना पड़ता था। धीरे-धीरे मैंने होठों के हिलने से शब्दों को समझने की आदत डाली। दो-एक महीने के अभ्यास के बाद ही मैं इस लायक हो गया था कि घर में सबसे लगभग बिना लिखे जरूरी बातें कर लेता था। सौभाग्य से हमारे घर में प्रायः सभी साक्षर हैं, अतः मुझे इस तरह की कोई कठिनाई नहीं होती थी। कठिनाई केवल तब आती थी, जब मुझे किसी अजनबी आदमी से बात करनी होती थी और मेरी जान-पहचान का वहाँ कोई नहीं होता था।

मेरी कक्षाओं के दिन पास आ रहे थे और मैं घोर निराशा की स्थिति में था। अपनी निराशा पर विजय पाने में मुझे कुछ समय लगा। मैं कल्पनाएं करता रहता था कि इस हालत में मैं किस तरह स्वाभिमान पूर्ण जीवन जी सकूँगा। साहित्यकार बनने से लेकर मजदूरी करने तक की संभावनाओं पर मैंने विचार कर डाला। मैंने यह भी सोच लिया था कि यदि मुझे कहीं कोई काम नहीं मिला, तो मैं कपड़े सिलकर भी अपना और अपने परिवार का पेट भर सकता हूँ। घर में रेडीमेड कपडों का काम होने के कारण मैं सिलाई मशीन अच्छी तरह चला लेता था और गाँव के लोगों द्वारा पहने जाने वाले सभी कपड़े सिल लेता था, हालांकि काटना नहीं आता था। अन्त में मैंने निश्चय किया कि सबसे पहले मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। इसके बाद ही भविष्य के बारे में विचार करना ठीक रहेगा।

उन दिनों मुझे ईश्वर पर कुछ अविश्वास सा हो गया था। मैं सोचने लगा था कि उसने जानबूझकर मेरी जिन्दगी खराब करने के लिए मुझे यह बीमारी दी है। मैं लगभग नास्तिक हो गया था। तभी मेरे सौभाग्य से मुझे अपने बाबा के बड़े भाई स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज, जिन्हें हम ‘लाल बाबा’ कहा करते थे, के माध्यम से स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ‘सत्यार्थ प्रकाश’ एवं अन्य पुस्तकें पढ़ने को मिलीं। उनमें कहा गया था कि ईश्वर बहुत न्यायकारी है, दयालु और कल्याणकारी है। तब मैंने अपनी हालत पर दूसरी दृष्टि से विचार किया तो ईश्वर में मेरा विश्वास फिर जाग गया।

मैंने सोचा कि ईश्वर ने मुझे यह अवसर दिया है कि मैं कुछ करके दिखाऊँ और लोगों के सामने एक उदाहरण बन जाऊँ। यह विचार आते ही मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और परमपिता द्वारा दी गई इस चुनौती को स्वीकार किया। मैं बचपन में प्रायः अपनी माताजी से कहा करता था कि मैं दुनिया में अपना नाम कर जाऊँगा। मेरा सपना कोई नयी वैज्ञानिक खोज करने का तथा नोबेल पुरस्कार जीतने का था और अभी भी है। तब मेरे मन में विचार आया कि अगर इस हालत में मैं अपना जीवन स्वाभिमानपूर्वक जी सका और विश्व में अपना ऊँचा स्थान बना सका तो वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बन जायेगा। इससे बड़ा पुरस्कार शायद कोई नहीं होता कि लोग किसी व्यक्ति का नाम अत्यन्त आदरपूर्वक लें। यह विचार आने पर मैंने ईश्वर को बार-बार धन्यवाद दिया और नये संकल्प के साथ मैं अपनी जिन्दगी बनाने को तैयार हो गया।

मैं अपनी कक्षाओं में शामिल होने पिताजी के साथ आगरा आया और कक्षाध्यापक को अपनी स्थिति बतायी। कक्षाध्यापक ने अपने सहयोग का आश्वासन दिया और साथी लड़कों ने भी मुझसे सहानुभूति दिखायी। लेकिन मुझे सहानुभूति नहीं प्रेरणा चाहिए थी। तमाम सहानुभूति प्रकटकर्ताओं के बीच कुछ ऐसे हितैषी भी थे, जिन्होंने सहानुभूति दिखाने के साथ ही मेरा हौसला भी बढ़ाया। ज्यादातर लोग उसे ईश्वर की लीला बताकर सहानुभूति प्रकट करते थे और कुछ लोग अभी भी मेरे भविष्य के बारे में शंका करते थे, लेकिन मैं स्वयं इस सबसे हतोत्साहित नहीं होता था। मेरे सामने से निराशा का अन्धकार छट चुका था और मैं स्वर्णिम भविष्य की किरणें अपने सामने देख रहा था।

पूर्ण निष्ठा और संकल्प के साथ मैं अपनी पढ़ाई में जुट गया। त्रैमासिक और षट्मासिक परीक्षाओं में मेरा प्रदर्शन (performance) काफी अच्छा रहा। मुझे पूर्ण विश्वास था कि बोर्ड की परीक्षा में मैं काफी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होऊँगा। प्रथम श्रेणी आने का विश्वास तो मुझे शुरू से ही था।

साथ ही मेरा इलाज भी चल रहा था। बीसियों बार मुझे माताजी के साथ सरोजिनी नायडू मेडिकल काॅलेज, आगरा जाना पड़ा था तथा प्रति तीसरे दिन मेरे इंजेक्शन लगा करता था। मैं केवल अपनी और परिवारवालों की संतुष्टि के लिए दवाइयाँ खा रहा था, हालांकि मुझे अपने ठीक होने की उम्मीद लगभग नहीं के बराबर थी।

मुझे अपनी पढ़ाई में अपने शिक्षकों का पूर्ण सहयोग मिला। साथ ही कई सहृदय सहपाठियों का भी सहयोग प्राप्त हुआ, यद्यपि कुछ अन्य सहपाठी पढ़ाई में मेरी अच्छी स्थिति के कारण अभी भी मुझसे ईर्ष्या किया करते थे। हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा का मेरा केन्द्र हुब्बलाल इण्टर काॅलेज, बालूगंज में था, जो कि लोहामण्डी से काफी दूर है। अतः मुझे बड़े भाइयों में से कोई एक रोज साइकिल पर पहुंचाने जाते थे तथा फिर 10 बजे किसी को लेने भी जाना पड़ता था। कभी-कभी देरी से लेने आने के कारण और भूख के कारण मुझे झुँझलाहट भी होती थी, लेकिन कुल मिलाकर पेपर अच्छी तरह हो गये और मैं अपनी उत्तर पुस्तिकाओं से पूर्ण संतुष्ट था।

परीक्षाओं के बाद मैं गाँव आ गया क्योंकि बोर्ड से रिजल्ट निकलने में काफी समय था और मेरा स्वास्थ्य भी बहुत खराब हो गया था। यहाँ पर बता दूँ कि हालांकि गाँव में भी मेरा स्वास्थ्य मामूली सा ही था, पर आगरा जाकर वह और ज्यादा खराब हो जाता था, क्योंकि वहाँ का वातावरण मुझे रास नहीं आता था। गाँव की हवा साफ होने के कारण यहाँ आकर मेरा स्वास्थ्य काफी हद तक सुधर जाता था और प्रत्यक्ष में कोई शिकायत नहीं रह जाती थी।

मेरे एक ताऊजी के लड़के डाॅ. सूरजभान गुप्ता, कानपुर में तत्कालीन उ.प्र. कृषि विज्ञान संस्थान और वर्तमान चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय में एग्रोनोमिस्ट हैं। (अब उन भाईसाहब का गुर्दे की खराबी के कारण देहांत हो चुका  है.)  उन्होंने पिताजी को पत्र लिखा था कि यहाँ कानपुर में एक स्वामी श्री देवमूर्ति जी हैं, जो प्राकृतिक विधियों से सभी प्रकार के रोगों का इलाज करते हैं। उन्होंने मुझे कानपुर लाने की सलाह दी। अतः उनके छोटे भाई श्री हरी मोहन के साथ एक दिन मैं कानपुर पहुँच गया और भाई साहब को साथ लेकर स्वामीजी से मिला। स्वामी जी ने मुझे ठीक हो जाने का विश्वास दिलाया और नेती आदि कुछ क्रियायें बतायीं जो मुझे काफी समय तक चलानी थीं।

मैं कानपुर में लगभग दो माह रहा और वहाँ सारी क्रियाएं नियमित रूप से करता रहा। लेकिन जाने क्या बात हुई कि स्वास्थ्य में मामूली सुधार के अलावा वहाँ मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। अतः इन क्रियाओं पर मेरा विश्वास नहीं जम पाया और मैंने ये क्रियाएं छोड़ दीं।

मैं उस समय कानपुर में ही था, जब मेरा बोर्ड का परीक्षाफल निकला। लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि मैं स्वयं उसे देखने से लम्बे समय तक वंचित रहा, क्योंकि वहाँ आगरा जिले का परीक्षाफल नहीं छपता था। अन्ततः मुझे पिताजी के एक पत्र द्वारा ही ज्ञात हुआ कि मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ हूँ। हालांकि मेरे पर्चे काफी अच्छे हो गये थे, लेकिन मैंने 66 प्रतिशत अर्थात् दो तिहाई से ज्यादा अंकों की उम्मीद नहीं की थी। लेकिन मेरे अंक थे 71.2 प्रतिशत और मुझे गणित तथा विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त हुई थी।

वह वर्ष हमारे देश के लिए वैज्ञानिक उपलब्धियों का वर्ष था। भारत ने अपना पहला कृत्रिम उपग्रह ‘आर्य भट्ट’ छोड़ा था तथा पोखरण में प्रथम भूमिगत परमाणु विस्फोट भी किया था। देश की इन सफलताओं का प्रभाव मेरे ऊपर न पड़ता, यह असंभव था। मैं अपनी कक्षा में तीसरे या चौथे नम्बर पर था। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था और अपनी इस प्रथम विजय के बाद मेरा आत्मविश्वास और ज्यादा बढ़ गया था। साथ ही मुझमें कुछ अहंकार भी जाग्रत हो गया था। हालांकि इस अति आत्मविश्वास से अन्त में मेरी हानि ही हुई।

कानपुर से मैं अपने बड़े भाई साहब के साथ सीधा आगरा आ गया, क्योंकि मेरी इण्टर की कक्षायें शुरू होने वाली थीं।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

2 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 12)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप की कथा से पता चलता है कि आप शुरू से ही कुछ ना कुछ इलग्ग करने वाले थे. किओंकि आप पड़ने में बहुत हुशिआर थे , इसी लिए आप में आतम विशवास बहुत था . सिहत की प्रॉब्लम होने के बावजूद आप आगे ही बड़ते गए , आप को सलाम करना बनता है और इसी लिए आप अब इस मुकाम तक पौहंच गए हैं . जो बात आप ने कानों की मुसीबत के बारे में लिखी , शुरू में आप कितने अपसेट थे , मैं भली भाँती समझ सकता हूँ किओंकि मैं अच्छी तरह बोल नहीं सकता , और जब मेरे मुंह से उचित शब्द नहीं निकलते तो मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आता है . मैं हर रोज़ इतना पड़ता हूँ कि फिर भी बात नहीं बनती . मुझे अपनी और तकलीफों की इतनी परवाह नहीं जितनी बोलने की है किओंकि मैं सारा दिन कुछ ना कुछ बोलता ही रहता था . जब भी कभी वक्त मिलता मैं अपने कीबोर्ड पर गाने गाने लगता , ग़ज़लें गाता . हर तरह के गाने मैं गाया करता था , अब सब कुछ ख़तम हो गिया . इसी लिए आप की कानों की तकलीफ देख कर मुझे अपनी फ्रस्ट्रेशन याद आ गई . आप का नाम भी विजय है , और आप की हिमत से आप हमेशा विजयी रहे हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम ! भाई साहब. आपने मेरी भावनाओं को सही रूप में समझा है. आभार ! इश्वर ने अगर कुछ छीना है तो इतना कुछ दिया भी है कि मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है, बल्कि रोज उसे हार्दिक धन्यवाद देता हूँ.

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