कविता

कविता

जिस तरह
मायूस हो जाती मोरनी
अपने पैरों को देखकर ।
उसी तरह
उदास हो जाता मन
जब कोई पूछता ?
कब तलक बाप के होटल में खाओगे
बेरोजगार पुत्र से ।

बेचैन हो जाता मन
नसीहत-दर-नसीहत से
उठने लगते कई विचार
मन में एक साथ !

कौन नहीं चाहता
हो अपने पैरों पर खड़े
बने बूढ़े मां-बाप के कंधों का सहारा
जब हो जायें बड़े ।

पिता जी !
होने नहीं दूंगा मायूस आपको
बनूंगा आपके कंधों का सहारा
आप है हमारे प्रेरणा पुंज ।

मैं कर्तव्य पथ पर डटा हूं
कोशिशों में जुटा हूं ।
हर अरमान, हर खुशियाँ
यूं ही त्याग रहा हूं
आपके सपनों की खातिर
रात-रात भर जाग रहा हूं ।

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    धरातल से जुडी कविता. यह हर बेरोजगार व्यक्ति की कहानी है.

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