कविता

स्वर्णिम भारत

 

हिन्द महासागर जिसके पग सदा निरंतर धोता है
उज्जवल कीर्ति यशोगान जिसका पग पग पर होता है
जिसके ह्रदय बसे राम और कृष्ण प्राण से प्यारे हैं
गर्व से कहते हैं संस्कृति में वो दबे से पाँव हमारे हैं

शब्दों का बोलो जिसे ज्ञान जिसको पहले लिखना आया
जिसने खोला मुख पहले दुनिया को बोलना सिखलाया
स्मृतियों ही स्मृतियों में बोलो किसने विज्ञान रचा
वेद ऋचाएं गढ़कर किसने ये ज्ञानकोश महान रचा
कोई बतलाये पहले किसने परमब्रह्म का ज्ञान दिया
किसे विश्व में ईश्वर ने नित जीवन का वरदान दिया
निश्चित ही केवल एक नाम मन में आता है वो ‘भारत’
अपनी कीर्ति हर युग में जो चमकाता है वो ‘भारत’
मेरा है सदा प्रणाम जिसे जिसपर ये प्राण न्योछारे हैं
गर्व से कहते हैं संस्कृति में वो दबे से पाँव हमारे हैं

देख चन्द्रमा सूरज देख विश्व डरा था जब करता
भारत नक्षत्रों से गणना, था भविष्य की तब करता
जब संसार ने सीखा था पत्थर घिस घिस आग जलाना
तब भारत को आता था यज्ञों के द्वारा शस्त्र बनाना
भारत नभ पर उड़ता था जब दुनिया चलना सीख रही
भारत भर भर अन्न उगाता जब दुनिया पलना सीख रही
निश्चित ही केवल एक नाम मन में आता है वो ‘भारत’
अपनी कीर्ति हर युग में जो चमकाता है वो ‘भारत’
मेरा है सदा प्रणाम जिसे जिसपर ये प्राण न्योछारे हैं
गर्व से कहते हैं संस्कृति में वो दबे से पाँव हमारे हैं

गर्वीले थे जिनके मस्तक चौड़ी जिनकी छाती थी
जल थल नभ और घाटी घाटी नित जिनके गुण गाती थी
चट्टानों से जिनके सीने और पर्वत से अटल इरादे थे
पत्थर से थे साहस जिनके और प्राण से प्यारे वादे थे
राष्ट्रप्रेम निस्वार्थ थी सेवा जिनके मन सरल सुजान सदा
प्राण न्योछावर करने वाले वो कहलाये परम महान सदा
निश्चित ही केवल एक नाम मन में आता है वो ‘भारत’
अपनी कीर्ति हर युग में जो चमकाता है वो ‘भारत’
मेरा है सदा प्रणाम जिसे जिसपर ये प्राण न्योछारे हैं
गर्व से कहते हैं संस्कृति में वो दबे से पाँव हमारे हैं

दुनिया ने जिससे सबकुछ सीखा आज वो भारत सोता है
काल का चक्र है चलता जाता और वो स्वर्णिम पल खोता है
क्षण क्षण पल पल बीत रहा है दुःख दुविधा की छाँव में
भारत का कल डूब रहा है गोते खाती इस नाव में
आओ जागो भारत वीरों पुनः स्वयं को पहचानो
अपने भीतर राम कृष्ण उनके गौरव को तुम मानो
निश्चित फिर स्वर्णिम अक्षर से लिखा जाएगा वो ‘भारत’
विश्व कीर्ति युगों युगों तक जिसकी गायेगा वो ‘भारत’
मेरा है सदा प्रणाम जिसे जिसपर ये प्राण न्योछारे हैं
गर्व से कहते हैं संस्कृति में वो दबे से पाँव हमारे हैं

____सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

3 thoughts on “स्वर्णिम भारत

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छा लगा .

  • Man Mohan Kumar Arya

    कविता के शीर्षक और उससे जुड़े कुछ बिन्दुवों को प्रशंसनीय रूप में प्रस्तुत करने के लिए बधाई स्वीकार करें।

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा देशभक्तिपूर्ण गीत !

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