संस्मरण

नहीं रहे बालसाहित्य के पुरोधा दादा राष्ट्रबंधु – एक संस्मरण और श्रद्धांजलि

लगता है जैसे कल की ही बात हो | 27 दिसंबर 14 को राजसमंद बालसाहित्य समागम मे राष्ट्रबंधु जी पधारे थे | बड़ी आत्मीयता से मिले –rashtrabandhuपहली बार | तब ये नहीं पता था कि ये आखिरी बार भी है | मैंने पैर छूए , उन्होने जी भर कर आशीर्वाद दिया | वहाँ तीन दिनों तक उनका सानिध्य रहा |बार – बार बेटा कह कर बुलाते और छोटी मोटी सेवा का अवसर देते | बोले – “अरविन्द ! तू मेरे पड़ोस मे रायबरेली का है | पहले क्यों नहीं मिला |”

क्या कहता , बस इतना बोल सका – ” दादा ! मेरा दुर्भाग्य है |”

_2337_2377_2352_2366_2359_2381_2335_2381_2352_2348_2306_2343_2369_2325_2375_2360_2366_2341_2325_2357_2367_2340_2366_2325_2366_2352_2381_2351_2358_2366_2354_2366_2350_2375_दूसरे दिन मेरे साथ बच्चों को कविता सिखाने की कार्यशाला मे उपस्थित रहे | मैंने अपने ढंग से बच्चों को कविता की एबीसीडी बताने की शुरुआत की | पहले उन्होने कुछ देर सुना फिर उठकर आगे आ गये , बोले – ” बेटा ! इससे बेहतर तरीका इस तरह से होगा |”…… और फिर एक शिक्षक और गुरु की बेहतरीन भूमिका मे उनको देखा | खुद भी उनसे सीखा | रात मे कवि सम्मेलन था | बालकविताओं का | राष्ट्रबंधु जी अध्यक्षता कर रहे थे | कुछ लोगों ने बड़ों की कविताएं पढ़ दी | वे कुछ नहीं बोले ,पर संतुष्ट नहीं दिखे | मेरा नंबर आया तो मैंने एक अलग मूड की कविता पढ़ने से पहले निवेदन किया कि यह बालकविता है या नहीं , इसका निर्णय आप पर छोडता हूँ | पूरी कविता सुनने के बाद जब उन्होने प्रशंसा की तो मैंने मंच पर झुक कर उन्हे प्रणाम किया और आशीर्वाद के प्रति कृतज्ञता ज्ञपित की | वे प्रसन्न हुए |

और अंतिम दिन विदाई से कुछ समय पहले वे बाहर धूप मे बैठे थे | मैं भी उनके समीप पहुंचा , कुछ बातें हुई | अचानक वे बोले – बेटा ! मेरे लिए एक सादा पान लगवाकर ले आओ | ‘ मैंने कहा – “ जी दादा , अभी लाता हूँ | ” मैं कार्यक्रम स्थल से नगर तक एक स्कूटर सवार की मदद से गया | बड़ी मुश्किल से एक पान की दुकान खोजी | उससे बोला – “सादा पान चाहिए | उसने मुझे – पत्ते दिखाए तो मैंने कहा – ऐसे नहीं लगा कर दो सादा, बिना तंबाकू का | वह ठीक से फिर भी मेरी बात नहीं समझा | किन्तु पैक कर दिया | एक सादा पान 15 रुपए का | हमारे रायबरेली मे तो अब भी तीन रुपए का बढ़िया मीठा पान मिल जाता है | बहरहाल, मैं ले आया, दादा को दिया | उन्होने प्रशंसा भाव से लिया, खाया | फिर चौंक कर बोले – ” बेटा ! मैंने सादा पान लगवाने को कहा था ये क्या – क्या डलवा लाये ? ” मैं चौंका – ” दादा मैंने वही तो कहा था दुकानदार से , वह शायद मेरी बात समझा नहीं ठीक से | मैं दूसरा लगवा कर लाता हूँ | ” वे बोले – नहीं नहीं रहने दो | बिना तंबाकू का मतलब उसने मीठे पान जैसा बना दिया | कोई बात नहीं , तुमने बहुत मेहनत की, अब मत जाओ | मैं इसी से काम चला लूँगा | तुम्हारा स्नेह इसे जबरन मीठा बना गया है | खुश रहो |” ऐसे थे डॉ राष्ट्र बंधु जी |

मैं इन यादों से अभिभूत हो रहा हूँ | उनके अचानक देहांत की खबर सुनकर मन अजीब सा हो रहा है | बालसाहित्य के पुरोधा नहीं रहे | ये एक अच्छे इंसान का जाना भी है , जिसकी रिक्तता की पूर्ति नहीं हो सकती | अपने देहांत के समय वे पटियाला मे एक कार्यक्रम से लौट रहे और ट्रेन मे ही चल बसे | यह शायद उनकी बालसाहित्य को एक निश्चित मंजिल तक पहुंचाने की अनन्त यात्रा का एक अनथक पड़ाव था जिसको निरंतर गतिशील रखने की ज़िम्मेदारी वे नई पीढ़ी पर छोड़ गये हैं | यहाँ मुझे यह भी याद आ रहा है कि बालसाहित्य पर सरकार की रुचि बढ़ाने की बहस के दौरान उन्होने कहा था कि सरकार को एक ट्रेन का नाम बालसाहित्य एक्सप्रेस रखना चाहिए तो कई साहित्यकारों ने प्रतिक्रिया दी थी कि दादा ! ऐसी किसी ट्रेन का नाम तो सिर्फ राष्ट्र बंधु एक्सप्रेस ही हो सकता है |

अकिंचन की विनम्र श्रद्धांजलि |

— अरविन्द कुमार साहू

अरविन्द कुमार साहू

सह-संपादक, जय विजय

One thought on “नहीं रहे बालसाहित्य के पुरोधा दादा राष्ट्रबंधु – एक संस्मरण और श्रद्धांजलि

  • विजय कुमार सिंघल

    राष्ट्रबंधु जी ने बाल साहित्य के क्षेत्र में बड़ा काम किया है. मैंने उनकी बहुत चर्चा सुनी है. उनको श्रृद्धांजलि !

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