कथा साहित्यकहानी

ममत्व से भरी: सुरिचा (कहानी)

धर्मप्रकाश जी के दो बेटे थे, आलोक और आदेश दोनों की शादी हो चुकी थी,धर्मप्रकाश जी और उनकी पत्नी सलिला देवी दोनों के व्यवहारों में बड़ा अंतर था, आलोक की पत्नी थी सीता जिसके दो बच्चे थे गुल्लू और बिन्नी, जबकि आदेश की शादी को लगभग ४ साल हो गए थे और पत्नी सुरिचा को एक भी औलाद नहीं हुयी थी, बहुत सी जगह इलाज कराया और वैद्य हकीमों से जड़ी बूटियाँ भी ली लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, धर्मप्रकाश जी मानते थे कि जब ऊपरवाले की कृपा होगी तभी उनके छोटे बेटे का घर रोशन होगा लेकिन सलिलादेवी के विचार बिलकुल अलग थे, उनका कहना था कि मायके वालों ने उन्हें किसी ना किसी तरह अँधेरे में रखा, उसके लड़के में कोई कमी नहीं है, लेकिन सुरिचा में है,विधाता को क्या मंजूर है क्या नहीं ये नहीं पता लेकिन सुरिचा बाँझ है! ये बातें वो खुलेआम गुस्सा आने पर सुरिचा को सुनातीं तो वो सुन लेती और कभी कभी कोने में जाकर सिसकियाँ भरते हुए चुपके चुपके रो लेती, लेकिन जब भी गुल्लू और बिन्नी उसके पास आते तो उन्हें दुलार देती, सीता को इससे कोई आपत्ति नहीं थी वो एक कामकाजी औरत थी, आलोक एक बैंक में क्लर्क थे, और आदेश किसी दूरसंचार विभाग के कर्मी थे, सुरिचा माता जी की कही हुयी बातें कभी आदेश से नहीं कहती थी, मोहल्ले की बाकी औरतें सुरिचा से कभी सहानुभूति रखती तो कभी अलग ही व्यवहार करतीं उनका व्यवहार कभी एक जैसा नहीं था, कोई उसे साहस बंधाती तो कोई सासू माँ से उलटी सीधी बातें करती, बड़ा अजीब सा परिवेश था, लेकिन सुरिचा खुश थी क्यूंकि आदेश को सुरिचा से इस बात की कोई शिकायत नहीं थी, जब कभी सुरिचा उदास हो जाती तो आदेश ही उसे प्यार से शांत करते थे, सुरिचा के पास उन्होंने एक कपडे की नन्ही सी गुडिया ला छोड़ी थी, जब कभी सुरिचा के मन को लगता कि उसके जीवन में एक नन्ही सी परी को आना चाहिए तो वह उस गुडिया को लेकर अपने कमरे की खिड़की के पास बैठ जाती, अम्बर में उड़ते बादलों को देखती और बार बार सोचती कि मेरी परी कैसी होगी! फिर माँ जी की आवाज आती और फिर उन सपनों को वहीँ छोड़कर दौड़ी दौड़ी नीचे जाती, जहाँ उसपर सारे काम का बोझ लाद दिया जाता, सीता घर के बाकी काम देखती थी, सुरिचा से उसकी बातचीत बहुत सीमित थी, लेकिन अक्सर जब भी वो बात करती तो अपने मायके वालों की बुराईया बताती रहती, जो सुरिचा को बिलकुल पसंद नहीं था, वो एक छोटे से शहर में पढ़ी लिखी लड़की थी जीवन में कुछ कर गुजरने का सपना उसने भी कभी देखा था, उसे किताबें बहुत प्रिय थीं, यहाँ वो हमेशा किताबों पर लगी रहती उसने कभी बैंकिंग की परीक्षा दी कभी प्रतियोगी परीक्षा निकालने के तमाम प्रयास किये लेकिन घरवालों का शादी का बोझ और उसपर भी जल्दी शादी का बोझ सारे सपनों को ले डूबा, और अब उसके जीवन में नयी उलझन थी बच्चे!! जिसके लिए रोज सासू माँ कोई ना कोई नया ताना जरुर देती थीं, अब उसे इन सबकी आदत हो चुकी थी, लेकिन कभी कभी उसके आंसू फूट ही पड़ते थे, गुल्लू और बिन्नी उसे जान से भी ज्यादा प्यारे लगते थे,जिसमे बिन्नी का तुतलाकर उसे ताती ताती (चाची) बोलना बहुत अच्छा था, कभी कभी वही सुनकर उसके आंसू निकल आते और फिर वो बिन्नी को गले लगा लेती, सीता को कभी कभी डर रहता कि कहीं सुरिचा उसके बच्चों के साथ कुछ कर ना दे, वो बड़ी शंकालु सी औरत हो चली थी, उसे सुरिचा में अपना प्रतिद्वंदी अधिक नजर आता था, जब बच्चे धीरे धीरे बड़े होते हैं तो अपनी माँ से दूर होते जाते हैं और बाकी की दुनिया में घुलने मिलने लगते हैं और ऐसे समय में उन्हें एक अच्छे अदद दोस्त की जरुरत होती है, जो उनके साथ खेले, गुल्लू और बिन्नी के लिए उनकी चाची सबसे अच्छी दोस्त थी, कभी कभी माता जी सुरिचा को बाजार भेज देतीं ये कहते हुए कि घर का सारा काम तो मेरी बहु सीता करती है और तू घर में पड़ी रहती है, जा जाकर कुछ सब्जी भाजी ले आ!! सुरिचा तैयार हो जाती, लेकिन इन दिनों बच्चे भी उसके साथ चलने की जिद करते, सीता बच्चों को समझाती कि वो अभी छोटे हैं जब बड़े हो जायेंगे तब वो भी चाची के साथ जा सकेंगे! ये देखकर भी कभी कभी सुरिचा भावुक हो जाती और फिर चुपचाप निकल जाती, बच्चे अब सुरिचा के साथ अधिक घुलने मिलने लगे थे, उन्हें बहुत अच्छा लगता जब वे अपनी चाची के साथ खेलते, खासकर बिन्नी उस नन्ही सी गुडिया के साथ खेलती, तो सुरिचा को और भी अधिक आनंद की अनुभूति होती, वो सोचती जीवन में उसने ऐसे ही आनंद की कल्पना की थी एक नन्ही सी परी उसके जीवन में आये, जिसके कोमल कोमल हाथ हों, जिसकी चमकती सी आँखें हों, एकदम मुलायम और सुंदर सी परी, लेकिन फिर ख़याल आता ये परी तो पराई है, और तभी वो और लाढ से भर आती और बिन्नी को गले लगा लेती!

उस दिन सीता और आलोक को कहीं शादी में जाना था, सफ़र लम्बा था इसीलिए रात से पैकिंग चालू थी, साथ ही धर्मप्रकाश जी और सलिला भी उनके साथ जा रहे थे, इधर आदेश बाबु सरकारी काम से शहर से बाहर गए हुए थे, गुल्लू और बिन्नी आज भी खेल में मगन थे, सीता आई और दोनों को साथ चलने के लिए कहा, गुल्लू और बिन्नी खेल में लगे रहे मानो जैसे उनपर कोई असर ही नही था, सुरिचा ने दोनों को तैयार होने को कहा और उन्हें नहला धुलाकर तैयार भी किया, लेकिन दोनों तैयार होकर भी सुरिचा के कमरे से निकलने को तैयार नहीं थे, दोनों खेल में ऐसे रम गए थे जैसे उन्हें कोई ख्याल ही नहीं था, कई सारे खिलोने थे और गुल्लू उनमे से एक एक को उठाकर उनसे बात करता था, बिन्नी उस गुडिया से बातें करती थी, और दोनों फिर अपनी चाची को उन खिलोनो की बातें बताते थे, जैसे दोनों ही उन खिलोनों की भाषा बखूबी समझते हो, इधर नीचे सभी लोग लगभग तैयार थे, सलिला देवी ने सुरिचा को बुलाया और लगभग देढ हजार रुपये देते हुए बोली, बहु, ये लो कुछ पैसे और घर का खयाल रखना, सलिला देवी ने सख्त रवैय्या अपनाते हुए कहा ‘सभी चीजें देख लेना सिर्फ एक रात की बात है, हम लोग कल शाम तक लौट आयेंगे अभी थोड़ी देर में दूध वाला आएगा उससे दूध ले लेना और जाओ ये पैसे अपने कमरे में रख आओ और बच्चों को ले आओ! जी माँ जी कहते हुए सुरिचा अपने कमरे की ओर जाने लगी और अन्दर गयी और इधर सीता ने सलिला देवी जी से सवाल किया, ‘माँ जी हम सुरिचा को भी साथ में क्यूँ नहीं ले सकते?’ सलिला देवी थोड़ी बिफरीं और बोलीं ‘अरे गजब करती हो सीता बिटिया, भले एक बांझ को देखकर शुभ कामों में विघ्न लाओगी क्या? इसे ले जा लिया तो उधर दुल्हन की माँ और दादी हमपर गरजेंगी कि किस मनहूस को ले आये!’ इस बात को सुनकर सीता चुप हो गयी और धर्मप्रकाश जी ‘तुम्हारा तुम ही जानो…’ कहकर बाहर निकल आये, आलोक पहले से ही टैक्सी लिए बाहर खड़े थे, इधर ऊपर से सुरिचा ने दरवाजे के पीछे से सारी बातें सुनी और एक अजीब सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी जो शायद फूट पड़ती तो आंसुओं की धारे निकल आती लेकिन जी को संभालते हुए उसने गुल्लू और बिन्नी को उठाया और कहा चलो नीचे सभी तुम लोगों की राह देख रहे हैं, गुल्लू बिन्नी नीचे आये, लेकिन दोनों चाची की ऊँगली छोड़ने को तैयार ही नहीं थे, दोनों ने एक ही रट लगा रखी थी,चाची तुम तैयार क्यूँ नहीं हुयी,? तुम भी चलो ना…. चलो ना… लेकिन सुरिचा के मुंह पर कोई जवाब नहीं था वो बस इतना कहती चलो चलो जल्दी करो बेटा जिद नहीं करते,बिन्नी बहुत ज्यादा परेशान हो गयी और मचल मचलकर रोने ही लगी कि चाची तुम भी चलो,तुम भी चलो…’ लेकिन किसी पर कोई असर नहीं पड़ा, उधर गुल्लू भी रूहांसा हो गया, इधर ये सीढ़ियों में घटता देखकर सलिला देवी का गुस्सा उनकी आँखों पर उतर आया, वो बोलीं अरे जल्दी नीचे ला उन्हें… और मुंह ही मुंह में बुदबुदातीं, ‘जाने क्या जादू किया है, बच्चों पर…’ जैसे तैसे घिसटते हुए बच्चे नीचे आये, लेकिन चाची का पल्लू छोड़ने को वो तैयार ही नहीं थे, इधर दोनों के चिल्लाने की आवाज सुनकर आलोक और धर्मप्रकाश जी अन्दर आये, ‘अरे जल्दी करो अब क्या हुआ…?’ धर्मप्रकाश जी बोले!! फिर उन्होंने गुल्लू को गोद में उठाया ‘अरे मेरा राजा…अपने दादा के साथ नहीं चलेगा क्या….? फिर बिन्नी को देखा…ओह्ह मेरी राजकुमारी मेरे साथ घुमने नहीं चलेगी..?? बिन्नी ने रोते हुए गुस्से में कह दिया..’नही…’ और फिर रोने लगी इधर गुल्लू पापा की गोद में गया और पापा उसे बाहर ले आये, उसे एक चॉकलेट दी और वो शांत होकर टैक्सी में पापा के साथ हो लिया, इधर बिन्नी ने रो रोकर बुरा हाल कर लिया, चाची जायेगी तो जायेगी नहीं तो नहीं, सलिला देवी बड़े संकट में आ गयी? सीता भी समझाते समझाते थक गयी और धर्मप्रकाश जी ने तभी अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, ‘बहु, तुम बिन्नी का ख्याल रख लोगी ना..? सुरिचा की आखों में चमक थी, उसने जैसे एक क्षण के लिए अपने किसी पुराने से सुस्वप्न को साकार होते हुए देखा, इधर सीता को बड़ा ताव आया वो सुरिचा की गोद से बिन्नी को जबरदस्ती लेने का प्रयास करते हुए बार बार बोलती ‘मेरी बेटी मेरे साथ जायेगी, लेकिन बिन्नी उसकी गोद में भी नहीं आई, अंततः सलिला देवी ने अपना फैसला सुना दिया ‘अरे बहुत हो गया छोड़ इसे और चल…सीता के पास कहने को कुछ नहीं बचा वो मुंह सिकोड़ती हुयी हुंह..करके चली गयी, सभी टैक्सी में बैठे, और बिन्नी शान्त हो गयी, चाची की गोद से बैठे बैठे उसने सभी को टाटा किया और चाची को देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ी, टैक्सी जैसे ही आगे चलकर नजरों से ओझल हुयी,सुरिचा बिन्नी को लेकर अन्दर आई और उसे हवा में उछालते हुए बोली …अहा…मेरी परी…!! उसके आनंद का उस क्षण में कोई सानी नहीं था, इतनी ख़ुशी और प्रसन्नता की अनुभूति उसने कभी नहीं की थी, बिन्नी के अगाध प्रेम की करूनधारा में सुरिचा अपनी सास की कही हुयी बातों को भूल चुकी थी, और बिन्नी को हवा में उछाल रही थी, बिन्नी भी खिल खिलाकर हंस रही थी, दोनों ने एक दुसरे के प्रति जिस प्रेम और आकर्षण को अनुभूत किया था उसकी तुलना कहीं नहीं की जा सकती थी, बिन्नी बहुत खुश थी, चाची का साथ उसे बहुत प्यारा लगता था, और आज तो उसने अपने मन की बात भी मनवा ली थी, सुरिचा ने जीवन में अपने ममत्व को तभी जैसे पूर्णतः जिया था, उसे तो जीवन का सारा उपहार यहीं मिल गया था, दिन से लेकर दोपहर तक वो बिन्नी के साथ खेलती रही उसे खाना खिलाया और फिर थककर दोपहर में बिन्नी सो गयी, जब बिन्नी सोती थी तो और भी सुंदर लगती थी,सुरिचा जिसे देखकर कर उसे चूमती थी, उसदिन उसने बड़े उत्साह से घर के सारे काम निपटा लिए थे, जब बिन्नी सोकर उठी तो उसे फिर मुंह हाथ धुलाकर घर में ताला लगाकर, मंदिर के पार्क में घुमाने ले गयी जो घर से नजदीक में ही था, वहां ढेरों बच्चे खेलते थे, उनके साथ सुरिचा और बिन्नी भी खेलने लगे इन सभी प्यारे बच्चों के बीच उसे अनुपम आनंद अनुभूत हो रहा था, बिन्नी उसे बहुत प्यारी लग रही थी, जिसके साथ वो खेल खेलकर कभी नहीं थकती थी, कुछ देर खेलकर फिर दोनों मंदिर में लगे नल के पास गए वहां पैर धोये और रुमाल को गीला कर सुरिचा ने बिन्नी और अपने माथे में पानी लगाया बिन्नी हलकी सी मुस्का दी, और फिर दोनों मंदिर के अन्दर पहुंचे, भगवान् श्रीकृष्ण और राधिका जी की अनुपम छवि को निहारते हुए सुरिचा के मन में एक बात आई कि ‘हे ईश्वर तुमने मुझे ममता दी, प्रेम दिया और आज केवल एक दिन के लिए ही सहीं पर इस ममता और प्रेम को न्योछावरकरना का अवसर भी दे दिया, मैं तुम्हारा लाख लाख धन्यवाद करती हूँ,’ ऐसे सोचते हुए धीरे से सुरिचा ने अपनी आँखें पोंछ ली, बिन्नी हाथ जोड़े खड़ी रही, फिर सुरिचा ने बिन्नी को गोद में उठाया और दोनों घर आ गए, कुछ देर टीवी देखने के बाद बिन्नी को लोरी सुनाकर सुरिचा ने सुला दिया, आज उसने पहली बार लोरी गाई थी, वही जो कभी उसकी माँ उसे सुनाया करती थी, हाथों से थपकियाँ देते हुए सुरिचा बिन्नी को सुला रही थी, तभी उसका फ़ोन बजा…फ़ोन पर सीता थी, उसने बिन्नी का हालचाल पूछा कुछ देर बात की और फिर आश्वस्त होकर फ़ोन रख दिया, इसके बाद सुरिचा ने देखा कि बिन्नी सो गयी है, तो वो भी उसके बाजू में लेट गयी, आँखें खोले धीमी जलती हुयी लाइट के बीच में आज बड़े दिनों बाद वो खुश होकर सो रही थी, उसे मानो ऐसा लग रहा था जैसे आज का दिन उसके जीवन का सबसे सुंदर दिन था, उसने अनुभूत किया कि उसके जीवन में इस मिठास को आने में भले देर हुयी लेकिन उसे ये सुख प्राप्त जरुर हुआ…ऐसा सोचते हुए उस रात सुरिचा सो गयी!

सुबह हुयी, भोर का सूरज निकलने से पहले सुरिचा की नींद टूटी और उसने देखा कि खिड़की से आते हुए प्रकाश से बिन्नी का चेहरा कैसा खिल सा रहा है, उसमे कितना तेज है कैसी चमक है, कितना आकर्षण है, कितना प्रेम से भरा हुआ है, कितना प्यारा है, ये देखकर सुरिचा ने फिर झुकते हुए बिन्नी को चूमा… और फिर उठकर बाहर आ गयी! सारे काम निपटाकर फिर बिन्नी को उठाया और उसे तैयार किया, एक प्यारी सी बच्ची जो अभी अभी बोलना सीख रही थी तुतलाती हुयी उससे बातें करती थी तो सुरिचा के मन को बड़ी प्रसन्नता होती थी, इस तरह दोपहर तक खेल खेल में बीता, और फिर बिन्नी को खाना खिलाकर सुरिचा गोद में बिठाए उसी खिड़की के पास बैठ गयी, फिर उन उड़ते हुए बादलों को देखकर उसे परियों की कहानी सुनाने लगी, कहानी सुनाते हुए सुरिचा की आँखें और मन दोनों भर आये, बिन्नी उसकी गोद में ही सो गयी जिसे देखकर सुरिचा ने आँखें पोंछी और मुस्करा दी, इतनी अधिक भावुक और खुश वो कभी नहीं हुयी थी जितना इन देढ दिनों में उसने इस नन्ही परी के साथ रहते हुए महसूस किया था, शाम के वक़्त दोनों फिर घर में ताला लगाकर बिन्नी और सुरिचा मंदिर चले गए वहां पहुंचकर उन बच्चों के साथ वो खेली और फिर कुछ देर मंदिर में शांत बैठी रही, इधर कुछ ही क्षण में उसे होश आया कि अरे आज शाम तो सभी लोग वापस आ रहे हैं, इधर उसने बिन्नी को गोद में उठाया और घर की ओर निकली वो थोड़ी घबराई हुयी थी कुछ परेशान थी तेजी से चल रही थी,गोदी में बैठी बिन्नी तो बेखबर थी, और जब वो घर पहुंची तो इधर सीता सलिलादेवी जी से चिल्ला चिल्लाकर रोते हुए कह रही थी, ‘देखा माँ…मैं कहती थी…मेरी बेटी को इसके साथ मत छोडो…जाने कहाँ ले गयी मेरी बच्ची को, फ़ोन भी नहीं उठा रही है, कहीं मेरी बेटी को मुझसे छीन तो नहीं लेगी न…कहीं वो उसे लेकर भाग तो नहीं जायेगी न…इधर धर्मप्रकाश ने आलोक को बहु को समझाने को कहा, और वो चुपचाप बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गए, गुल्लू को गोद में लिए हुए, दूर से ही सुरिचा इस नज़ारे को देख रही थी,सलिलादेवी ताव में लाल हो रही थीं, आलोक सीता को चुप रहने की नसीहत दे रहे थे, तभी गेट की तरफ देखते हुए गुल्लू चिल्लाया….चाची…और दौड़कर वहां पहुंचा, सीता भीउधर दौड़ी और मेरी बेटी…मेरी बच्ची करती हुयी दौड़ी इसी बीच सुरिचा ने बिन्नी को गोदी से उतारा..उसे ऐसा लग रहा था, जैसे पराये धन का सुख लेने के बाद वो उसे छोड़ रही थी, किन्तु फिर मन में एक संतोष का भाव उठता, फिर सोचती शायद परमात्मा ने इतने दिन ही उसके प्रेम को बांटने के लिए दिए थे, उसने गेट खोला मुस्कराते हुए अन्दर आई, और फिर सभी को बताया कि वो मंदिर गयी थी… सीता अवाक होकर सुरिचा को देखती रह गयी, सासू माँ ने थोड़ी कहा सुनी की, फिर ताला खोला गया, और सब अपने अपने कमरे में चले गए,बिन्नी और गुल्लू सीता के पास कमरे में खेलने लगे और इधर सुरिचा चौके में जाकर सबके लिए चाय तैयार करने लगी, फिर चाय लेकर उसने हाल में बैठे अपने सास ससुर को दी और फिर सीता के कमरे में चाय लेकर गयी, जब वो चाय लेकर सीता के कमरे में पहुंची तो उसने देखा सीता आईने के सामने खड़ी रूहांसी सी हो रही थी शायद उसे अपनी किसी कमजोरी काएहसास हो चूका था, शायद उने उस पल अपनी खामी को तजने का फैसला किया हो तभी सुरिचा ने अंदर आते हुए मुस्कराकर कहा ‘भाभी चाय…’ और एक पल के लिएसीता मुड़ी, सुरिचा ने चाय की ट्रे नीचे रखी और सीता ने सुरिचा को गले से लगा लिया,वो फूट फूटकर रोने लगी, और कहती जाती थी मुझे माफ़ कर दो…मुझे माफ़ करदो…,सुरिचा की आँखों में भी आंसू थे, जैसे उसने इस आलिंगन में सब कुछ पा लिया था, उसकी आँखों में चमक थी, और पीछे उन दोनों को देख बिन्नी धीरे धीरे मुस्करा रही थी!!

_____सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “ममत्व से भरी: सुरिचा (कहानी)

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बाँझ ….. दर्द वही समझ सकता है जिसने इसे सुना हो ….. उम्दा कहानी

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत ख़ूबसूरत मार्मिक कहानी !

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