संस्मरण

मेरी कहानी-8

इन पीपलों के नज़दीक जो खूही थी वह मुसलमानों की थी। कभी कभी वे कोई त्योहार मनाते और गुड़ वाले चावल बांटते जिसको वोह निआज़ बोलते थे। हालांकि हमें उन से कोई खाने की चीज़ लेने की मनाही थी फिर भी हम  डरते डरते आगे आकर अपने दोनों हाथ आगे कर देते और वोह हमें चावल दे देते और हम एक दूसरे लड़के को चेतावणी देते कि हमारे घर बताना नहीं। इन पीपलों में जब हम खेलते थे तो मुसलमानों के लड़के लड़किआं भी होते। उन में एक लड़की थी जो मेरी उम्र की ही थी वोह हमेशा मेरे साथ ही खेलती। उस का चेहरा अभी भी कुछ कुछ याद है, उस को सीदाँ बोलते थे। यह क्या नाम था मुझे आज तक पता नहीं। उस का रंग गोरा, बाल भूरे और उसका लाल रंग का परांदा  होता था। मुसलमानों के गाँव छोड़ने से कुछ दिन पहले बड़े लड़के आपस में बात कर रहे थे कि उन को यह गाँव छोड़ना पड़ेगा। सीदाँ बोली ” मैं तो नहीं जाउंगी , मैं तो गेली के साथ रहूंगी ” (बचपन में मुझे गेली कहते थे ). फिर कहने लगी, अबू कहते थे बारिश बहुत होगी, इस लिए मैं तो जाउंगी नहीं।  कैसी बात थी यह कि बारिश होगी और वोह नहीं जायेगी। मुझे कभी समझ नहीं आया लेकिन एक बात तो है कि उन के घर में पाकिस्तान जाने की बातें होती होंगी।

          मुसलमानो के गाँव छोड़ने से कुछ दिन बाद ही बारिश शुरू हो गई। सीदाँ की बात शायद सच होने वाली थी, यह बारिश इतनी होने लगी कि सभी तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा। पानी हमारी गली तक आ गिया। सभी लोग सहमे हुए थे कि अगर यहां तक पानी आ गया है तो  बहुत से गाँव बाढ़ से पानी में डूब गए होंगे क्योंकि हमारा गाँव ऊंचाई पर था। जो बातें लोग करते थे मुझे सब याद हैं। लोग बोलते थे कि राम सर पानी में डूब गिया है। और दो लड़के राम सर खेतों में थे उन का कोई पता नहीं कि किया हुआ।
यह राम सर का भी छोटा सा इतिहास है। राम सर हमारे और एक और दूसरे आदमी के खेत थे। यह खेत हमारे गाँव से तकरीबन दो किलोमीटर दूर थे। कहते हैं कोई वक्त था जब सिखों के चौथे गुरु राम दास जी यहां आए थे औए जगह को अच्छी जान कर यहां एक सरोवर बना दिया, यहां मेले लगने शुरू हो गए। कहते हैं एक दिन एक चमार स्त्री ने सरोवर में चमड़ा धो लिया। इस के बाद अचानक सरोवर जमीन में गर्क हो गया , वोह स्त्री कुछ दिनों बाद मर गई और वहां मेले लगने भी बंद हो गए। कई दफा दादा जी मुझे बाइसिकल के पीछे बिठा कर यहां ले आते थे। जो तालाब की बात लोग करते थे उस जगह एक बहुत लम्बा छपड़ सा था।  जिसे लोग मानते हैं कि जरूर यहां सरोवर होता होगा।
इस सरोवर के पूर्व की ओर एक बहुत बड़ा बोहड़ का दरख़्त है जो दो तीन सौ साल पुराना होगा और इस के साथ ही एक छोटी सी छोटी ईंटों वाली खूही थी (इस को अब कवर कर दिया गिया है). इस बोहड़ के दरख़्त के नीचे एक झौंपड़ी थी जिस में एक बूढा फ़क़ीर रहता था। वोह कहीं नहीं जाता था। कोई न कोई उसे रोटी दे जाता था। जब दादा जी मुझे राम सर ले जाते तो पहले उस बूढ़े फ़क़ीर के पास जाते, बातें करते और कुछ खाने को दे देते। फिर जहां हमारा कुंआ था वहां जाते। यहां हमारी जमीन काफी थी और कुएं के नज़दीक एक पक्का कमरा बना हुआ था जिस में खेती बाड़ी के औज़ार रखे होते थे। हमारा कुँआ भी बहुत अच्छा था, इस के इर्द गिर्द शहतूत  के दरख़्त होते थे जिस पर हर साल शहतूत लगते थे जो बहुत मीठे होते थे। दूसरे कुंएं वाले किसान और उन के लड़के अक्सर हमारे कुएं पर आ जाय करते थे और गप्पें लगाया करते थे। हमारे कुएं के तकरीबन दो सौ गज़ की दूरी पर एक नदी है  जिसमें बहुत पानी होता था (अब इस में इतना पानी नहीं है). यह नदी जिस को वेइन बोलते हैं  यह वोह नदी है जो जालंधर के नज़दीक चहेरु के रेलवे के पुल के नीचे से जाती है। बाढ़  से इस  पुल में बहुत दरख़्त फंस गए थे , जिसके कारण ही पानी का लेवल ऊंचा हो गिया था और हमारे गाँव में  भी जा चुका था।
बारिश बहुत हो रही थी, सभी आदमी गाँव को चले गए थे और उन किसानों के दो लड़के , एक का नाम था साधू और दूसरे का नाम था मिलखी ( मुझ से तीन चार साल  बड़े होंगे ) खेतों में रह गए थे। पानी इतनी जल्दी ऊपर चढ़ गिया था कि  कोई आदमी उन लड़कों को बचाने नहीं जा सकता था। सारे गाँव में उन लड़कों की बातें ही हो रही थीं कि वोह ज़िंदा होंगे या पानी में बह गए होंगे। आखिर दो आदमी जो तैरना जानते थे उन्होंने बड़ी बड़ी लकड़ीओं को रस्सों से बाँध कर , उस पर बैठ कर कोई चप्पू जैसी चीज़ से लड़कों को बचाने के लिए चल पड़े , लेकिन वोह पानी के बहाव से दुसरी ओर  चले गए और चहेड़ू  के पुल तक पहुंच गए लेकिन बच गए। कहते हैं तीसरे दिन पुल पानी के जोर से टूट गया और पानी का लेवल नीचे आना शुरू हो गिया। अब कुएं तक जाना आसान हो गया था। वोह लोग अपने साथ रोटीआं ले गए थे। जब बहुत से आदमी वहां पुहंचे तो दोनों भाई भूख से बेहाल बैठे थे। भगवान का शुक्र है कि वोह बच गए थे। उन लड़कों ने जो कहानी सुनाई उस से सब लोग हैरान हो गए थे।
एक और बात भी हो रही थी कि जो मुसलमान लोग पाकिस्तान को जा रहे थे और एक कैम्प में हज़ारों की तादाद में थे चहेरु के पुल के अचानक टूटने से कैम्प के सारे लोग पानी में बह गए थे। साधू और मिलखी ने रोटी खाने के बाद बताया कि पानी इतनी जल्दी ऊंचा होने लगा था कि पहले उन्होंने हमारे कमरे की छत पर चढ़ने की सोची , फिर छोटा मिलखी बोला, भईआ ”  अगर यह कमरा ढह गिया तो ?” यह सोच कर वोह हमारे एक बड़े शतूत के दरख़्त पर चढ़ गए। अभी चढ़े ही थे कि हमारा वोह कमरा ढह कर नीचे आ गिरा और बहुत बड़ा धमाका हुआ। पानी के वहाव से बहुत सांप आते जिसको वे डंडे के साथ धकेल देते। पानी सिर्फ दो तीन फुट ही नीचे था और गिरने का भी खतरा बना हुआ था। कहीं नींद आ जाने से गिर न जाएँ उन्होंने एक दूसरे को एक रस्सी से बाँध रखा था।
भूल ना जाऊं , यहां बोहड़ के दरख़्त के नीचे फ़क़ीर था वो भी पानी में  डूबकर अल्ला को प्यारा हो गया था। बोहड़ के दरख़्त और खूही के सिवा यहां कुछ नहीं होता था, सिर्फ कीकर और पलाश के दरख़्त ही होते थे। दूर दूर तक घास ही घास होता था जिस पर लोग अपनी गायें  भैंसें चराया करते  थे। कुछ वर्षों बाद जब मैं कुछ बड़ा हो गया था तो मैं भी शनिवार और ऐतवार को अपनी गाए भैंसें ले कर यहां आ जाया करता था जिस को हम बहुत मज़े से करते थे, क्योंकि मीलों तक घास और दरख़्त ही होते थे।  दरख्तों पर हम एक खेल खेलते रहते थे जिस को जंग पलंगा कहते थे। इस खेल में दरख़्त के नीचे एक सर्कल में डंडा रखा होता था और एक लड़का उस को सर्कल में लिए खड़ा होता था , बाकी लड़के दरख़्त के ऊपर चढ़ जाते थे। सर्कल वाला लड़का दरख़्त पर बैठे लड़कों को  हाथ लगाने के लिए दरख़्त के ऊपर चढ़ने की कोशिश करता था लेकिन कोई और लड़का जल्दी से दरख़्त से छलांग लगा कर डंडे को बहुत दूर फैंक देता था। उस सर्कल वाले लड़के को फिर भाग कर डंडे को उठा कर सर्कल में रखना होता था। अगर सर्कल वाला लड़का किसी के डंडा फेंकने से पहले हाथ लगा देता था तो फिर उस लड़के को सर्कल में खड़ा होना पड़ता था। सारा दिन हम मज़े करते रहते।
यह शायद १९५८ ५९ की बात होगी जब हरखोवाल गुरदुआरे से एक संत जी आए जिन्होंने वहां मेला लगवाया और इस वीराने में एक झंडा यानी निशाँ साहिब खड़ा कर दिया। लोग दूर दूर से आये और यह मेला कई दिन तक रहा। इस के बाद हर संक्रांत को यहां कीर्तन होने लगा। राम सर की पर्सिध्ता फिर से शुरू होने लगी। और आज यहां बहुत बड़ा  गुरदुआरा बन गिया है और हर वक्त रौनक होती है। कुछ वर्ष हुए मैं जब गाँव गिया तो दिवाली के दिन दीआ जलाने के लिए अपनी बीवी और छोटे भाई के साथ गिया। गुरदुआरा बहुत सुन्दर है। दूर दूर तक जो कभी घास का मैदान होता था अब चारों तरफ गन्ने और गेंहूँ के खेत थे। मैंने वोह खूही और बोहड़ का दरख़्त देखा जिस के इर्द गिर्द सब कुछ बदल चुक्का है। यहां सरोवर के स्थान पर एक छपड़  था उस जगह पर छोटा सा सरोवर बना दिया  गिया है। बहुत देर तक खड़ा मैं खियालों में वोह पुराना बचपन का  चित्तर बनाता रहा और फिर गुरु राम दास जी  के उस समय को सोचने लगा।  लगा जैसे गुरु राम दास जी ने फिर आ कर इस जंगल को मंगल बना दिया हो।
चलता…।

6 thoughts on “मेरी कहानी-8

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी आत्मकथा में आपकी जिंदगी के कुछ पन्ने पढ़कर ऐसा लगता है कि युग परिवर्तन हो गया है। विगत ५० वर्षो में देश और इसके गावों का नक्शा ही बदल गया है। कई बार जीवन की पुरानी यादो को स्मरण कर अच्छा लगता है। ऐसा ही सुख आपकी आत्मकथा को पढ़कर होता है। आपके सरल व सुबोध शब्दों को पढ़कर किसी स्वादिष्ट भोजन का सा आनंद अनुभव होता है। आभार एवं धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद .आप हमेशा अछे विचार पेश करते हैं जिस से मुझे उत्साह मिलता है . मनमोहन जी , इतहास होता ही his story है . मैं तो सिर्फ पिछले ५० वर्ष का ही लिख रहा हूँ जब से समय इतना आगे निकल गिया है , फिर वैदिक युग में किया होता होगा ? मैं कोशिश कर रहा हूँ वोह लिखने की जो अब है नहीं और यह ही इतहास है. रात को जब मैं सोने के लिए बैड रूम में गिया तो बैड रूम का टैली ऑन कर दिया . bbc पर एक दाकुमैन्त्री चल रही थी जो उस वक्त की थी जब हम यहाँ आये थे . उस समय गोरे लोग हमारे खिलाफ बहुत होते थे , हमारे लोगों पर हमले करते थे , सीधे हमारे मुंह पर बोलते थे कि अपने मुलक में वापिस चले जायो , गोरिआं कहती थीं कि यह लोग गंदे हैं , इन को बात करनी नहीं आती , इन के मैनरज़ अछे नहीं . फिर हमारे लोगों ने सिआसत में हिस्सा लेना शुरू किया और पार्लिमैन्तरी सीटें जित कर अपनी आवाज़ उठाई . यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ था . अब समय कितना बदल गिया है . हमारे लोगों ने सख्त मिहनत की और अब हमारे घर किसी तरह भी गोरों से कम नहीं , हमारे बच्चे पड़ लिख गए हैं और उन्हीं गोरिओं से शादिआन कर रहे हैं जो हमें नफरत करती थी . यह दाकुमैन्त्री देख कर मुझे भी हैरानी हुई , बस यही इतहास है.

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपसे नई नई बातों की जानकारी मिलती है। वैदिक युग में सभी मनुष्य प्रायः वेदो की मान्यताओं एवं विचारों के अनुसार रहते होंगे जिसका कुछ उल्लेख बाल्मीकि रामायण और महाभारत ग्रन्थ में मिलता है। मनुस्मृति के सिद्धांतो व नियमों से भी कुछ कुछ प्रकाश पड़ता है। १९४७ से पहले हम ब्रिटिश प्रजा थे। उनके द्वारा हमें उनके अधिकार वाले टापुओं पर मजदूरी आदि काम करने भेजा गया था। वहां मेहनत करके हम स्वावलम्बी, शिक्षित और उन्नत हुवे। उन्हें हमें वहां की नागरिकता भी देनी पड़ी। मैं समझता हूँ कि भारतियों का विश्व के अनेक देशों की उन्नति में पहले भी था और अब भी बहुत योगदान है। प्रवासी भारतियों के इतिहास विषयक मैं एक विद्वान का लेख आगामी कुछ दिनों में भेजने वाला हूँ। कृपया अपना ईमेल मेरे ईमेल manmohanarya@gmail.com पर भेज दे। इस लेख से हो सकता है की आपको कुछ नई जानकारी मिल जाये। टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , धन्यवाद . जो आपने लिखा है कि एक पैर को उठा कर नीचे से फैंकते थे वोह सही है , हम भी इसी तरह करते थे , मैं ही भूल गिया था . भाई साहिब वोह सीधी साधी जिंदगी बहुत मजेदार होती थी . इतने सालों में कितना कुछ बदल गिया , वोह जगह जिन को कोई ख़ास रास्ता भी नहीं होता था वहां दूर दूर तक खेतों की हरिआली ही दिखाई देती है और सब से बढ़िया बात यह है कि अब यह जगह इतनी सुन्दर है मुझे देख कर मज़ा ही आ गिया .गाँव से यहाँ राम सर को एक बढ़िया सड़क बनी हुई है जो कि नदी जिस का ज़िकर मैं कर चुक्का हूँ उस पर नए पुल से होती हुई कई गाँवों को मिला देती है और जिस जालंधर को जाने के लिए बहुत लम्बा सफ़र करना पड़ता था अब बहुत नज़दीक हो गिया है. भारत की उन्ती बहुत हुई है.

    • विजय कुमार सिंघल

      यह बात तो सही है भाई साहब कि देश की उन्नति हुई है. उनमें भी पंजाब और हरियाणा काफी आगे हैं. लेकिन हमारे उत्तर प्रदेश में उन्नति कम हुई है. ऐसा अधिक आबादी के कारण हुआ है.
      वैसे देश कि उन्नति उतनी नहीं हुई जितनी हो सकती थी और होनी चाहिए थी. दुसरे देश हमसे बहुत आगे निकल गए हैं. अब मोदी जी आये हैं तो उन्नति की रफ़्तार बढ़ रही है और शीघ्र ही हम सबसे आगे हो जायेंगे अगर मोदी जी की सरकार 10-12 साल भी बनी रही. अच्छे लक्षण अभी से नज़र आने लगे हैं.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब ! भाई साहब, यह सारा विवरण पढ़कर रोमांचित हुआ.

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