पुराने दिनों की यादें…
याद है सड़क पर पैदल चलना
अपनी ही छाँव को देखकर इतराना
कभी कार के शीशों पर झांककर
बालों को सवारना
ऊंची इमारतों को देख सपने बुनना
कंधे पर एक बस्ता होता था
और आँखों में काला चश्मा
इस रुबाब से सड़कों पर निकलते थे
जैसे इस सड़क के बादशाह हों
फिर कोई अनजाना दिख जाता तो
उसे देखकर मुस्करा देते थे,
आज भी मुझे याद है,
वो अपने घर की गली पर मुड़ते ही
एक फलों के रस की दूकान थी
हम अक्सर वहां जाया करते थे,
दोस्तों को लाया करते थे
उन कॉलेज के दिनों में अक्सर
दिन में पढाई की बातें
और रात में दिल की बातें करते थे
घंटों बातें करते थे,
मुझे तो अब भी याद है
उन पेड़ों की परछाइयां जो छाँव देती थीं
उन टूटी दीवारों की उधड़ी हुयी ईंटें
जिनपर अक्सर चढ़ कर बैठ जाते थे,
सूरज का ढलना,
चाँद का निकलना
सब याद है,
बस गिला यही है
कि ये यादें हैं, हासिल कुछ भी नही!
___सौरभ कुमार
धन्यवाद जी
इन यादों में कुछ मज़े हैं जो सिर्फ अपने ही होते हैं .
अच्छी कविता !