आत्मकथा

स्मृति के पंख – 3

यात्रा बहुत अच्छी रही। अब हम घर वापिस पहुँच गए। कुछ दिन दुकान को बनाने संवारने में लगे। फिर से मदरसा, खेल-कूद, हंसना और हंसाना। भ्राताजी का रिश्ता भी गढ़ी कपूरा में धवन खानदान में हुआ। हमारे माताजी भी गढ़ी कपूरा की थीं। अच्छा लगता कि भाभीजी भी उसी शहर की हैं।

थोड़ा खुलासा अपने गाँव व बिरादरी का बतला दूं। गाँव के मशरिक (पश्चिम) में नदी थी और मगरिब (पूर्व) में नहर। चारों तरफ माल्टे और संतरे के बाग थे। तलवाड़ खानदान का और हमारा घर और एक नवाब की गढ़ी थी, जहाँ कभी नवाब आता तो ठहरता था। बस यह तीन मकान पुख्ता थे, बाकी सब कच्चे। 6 गाँव की बिरादरी थी। तोरू, मय्यार, गलाढेर, रिशक्की, चैकी व बाराबांडा। तोरू में 2 घर ब्राह्मणों के थे। एक ब्राह्मण हर त्योहार, दुख-सुख में हमारे यहाँ पहुँचता, जिसका नाम था बिहारीलाल। दुख-सुख होता, तो दस्ती चिट्ठी पाँचों गाँव भिजवा देते। वहाँ से सब लोग पहुँच जाते। हमारे गाँव का अपना फैसला था, कोई स्वर्गवास हो जाए, तो सब लोग काम बंद करके श्मशान घाट तक लकड़ी वगैरह ले जाते और पूरा समय सब दुकानें और काम बंद रहता, जब तक कि चिता जलाकर सब लोग वापिस न आ जाते। अगर इस बीच किसी को काम करते या सौदा फरोख्त करते देख लिया जाता तो सवा रुपये और सवा सेर तेल जुर्माना होता, जो गुरुद्वारा को देना होता था। इसमें कोई रियायत किसी के साथ न थी। उन दिनों इतनी सजा भी बड़ी सजा थी। कमाई तो आम तौर पर खाते पीते घराने की 50 रुपये माहवार। आम लोग 10-20 रुपये माहवार, फिर ऊपर से बिरादरी की शर्मिदगी। कोई ऐसा करता नहीं था, फिर भी कभी-कभी हो जाता था।

मैं चौथी पास करके मरदान गोवर्नमेंट हाईस्कूल में दाखिल हो चुका था। यह 1921-22 की बात है। भ्राताजी की शादी की तैयारियां थीं। शादी की तारीख का मुझे बहुत बेसब्री से इंतजार था। ज्यों-ज्यों दिन नजदीक आते गए, मुझे भाभीजी को देखने का इश्तयाक बढ़ता गया और फिर वो दिन आ गया। घोड़ी के आगे करीब एक मील लम्बे सफर तक मैं नाचता ही रहा। कभी थोड़ा सुस्ता लेता, फिर शुरू कर देता, लेकिन लगातार नाचता ही रहा। उन दिनों वो खानदान मरदान आ गया था। शादी मरदान में ही हुई थी। दूसरे दिन भाभीजी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, मैंने चरण छुए, उन्होंने प्यार किया। दरअसल मां के स्वर्गवास हो जाने के बाद मुझे जैसे प्यार की ही तमन्ना रहती। जहाँ से प्यार मिलता, मेरा मन आनन्द से भर जाता, जैसे प्यार मेरी भूख बन गई हो।

मरदान दाखला के बाद मैं, हरिकिशन और भगतराम के साथ उनकी मरदान में इमारती लकड़ी की मण्डी थी, वहाँ ही रहते। शादी के बाद मुझे भ्राताजी ने अपने ससुराल में रहने को कहा, जहाँ मैं ज्यादा देर नहीं रह पाया। मुझे तलवाड़ भाइयों के साथ अच्छा लगता था। चाचाजी तो टांगा में रोजाना घर आया करते थे। हम भी कभी-कभी उनके साथ आ जाते और सुबह उनके साथ वापिस चले जाते। इस तरह थोड़ा ही समय रह पाए, नौमाही इम्तहान देने के बाद मुझे टाइफाइड़ बुखार हो गया, तकरीबन 2 महीने तक रहा। एक तो सेहत काफी खराब हो गई, दूसरे स्कूल से नाम कट गया। भ्राताजी ने कोशिश की कि दोबारा दाखिला हो जाए, लेकिन पिताजी ने कहा, “काफी कमजोर है और फिर कौन सा हमने और कोई काम करना है। दुकान पर ही तो काम करना है।” इस तरह भ्राताजी ने भी फिर कोशिश न की और मैं तालीम से महरूम रह गया। यह मेरी बदकिस्मती का दूसरा वार था।

थोड़ा अर्सा बाद दुकान पर छिड़काओ करना, गद्दी लगाना, सामान को झाड़ना पोंछना शुरू कर दिया। सुबह उठकर नदी पर जाना, स्नान करके गुरुद्वारा मत्था टेक कर घर आना। पिताजी ने गायत्री मंत्र का जाप सिखा दिया और गुरु देवकीनन्दनजी से गुरुमंत्र भी दिलवा दिया। कुछ धाार्मिक विचार भी सुनाते रहते, जो मुझे अच्छे लगते। इसी आधार पर मैंने धार्मिक पुस्तकंे पढ़ने की ठानी। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत पुराण, गीता ये सब पुस्तकें पंजाबी में लिखी थीं। पिताजी गुरुमुखी लिपि पढ़ सकते थे। हिन्दी या उर्दू पढ़नी उन्हें नहीं आती थी। मैंने भी पंजाबी सीखनी शुरू कर दी। कुछ हिन्दी पढ़ी थी, पंजाबी पढ़ना जल्दी ही आ गया। शायद एक साल बाद, मैं अच्छी तरह पुस्तकें पढ़ने लगा। इस तरह मेरे धार्मिक विचारों को बढ़ावा मिला और अच्छा भी लगा। रात को धार्मिक ग्रंथ पढ़ता। सुबह गायत्री मंत्र और गुरु मंत्र का जाप भी करता, जो आज तक बदस्तूर करता हूँ। मुझे इन किताबों को पढ़ने का बहुत शौक था और पूरा समझकर पढ़ता था। उनसे मेरे अन्दर काफी जागृति आई और जीवन के पथ पर आगे बढ़ने के लिए हौसला और प्रेरणा मिली।

(1) भगवान कृष्ण का ऊधो को गोकुल भिजवाने से मुझे प्रेम का असली रूप समझ आया।

(2) ‘कृष्ण-अर्जुन सम्वाद’ गीता से अपने अधिकार पर लड़ने की और सच्चाई पर चलने की प्रेरणा मिली।

(3) ईश्वर पर अटल विश्वास से मेरे मन को हौसला मिलता और लगता कि मेरे सर पर आशीर्वाद का हाथ और उनकी छत्रछाया है।

(4) अपने सोचने से कुछ हासिल होना मुमकिन नहीं। भगवान की कृपा और बुजुर्गों का आशीर्वाद हो तो सब कुछ हो जाता है। भगवान की कृपा कैसे होगी? यह तो समझ नहीं पाते, परन्तु बुजुर्गों के आशीर्वाद को हम समझ भी सकते हैं और देख भी सकते हैं, तो ऐसे आशीर्वाद से भगवान की कृपा होती है।

(5) सन्तोष रखना। कर्म करना हमारा काम है। फल भगवान के हाथ। निष्काम कर्म करते जाओ। जो फल मिले, उस पर निर्भर रहना ही संतोष है। संतोष से मन को खुशी होती है।

(6) नारी की महानता। माँ पिता से महान है। पति से पत्नी महान है, जो शादी के बाद अपने दूसरे जन्म को संवारती है पहला भूलकर, जैसे त्याग की मूर्ति हो। बहन, खुद तो भूखी सो सकती है, भाई को भूखा नहीं देख सकती। प्रेमिका, 80 प्रतिशत लड़के उसे धोखा दे जाते हैं। बेटी, बेटे के बनिस्बत ज्यादा प्यार और खिदमत का जज्बा रखती है, माँ बाप के लिए। बहू, अपना नया संसार बनाती है। सास ससुर को बहू के प्रति बहुत प्यार, और मान की जरूरत है, तभी बहू को अहसास होता है, यह मेरा अपना घर है। इतना प्यार मिले उसे, ताकि मायके परिवार की तुलना करने पर उसे ससुराल भी उतना ही अच्छा लगे। इसके विपरीत चलने वाला गृहस्थ जीवन कभी सुखी नहीं हो सकता।

कभी-कभी माताजी और भाभीजी का खटपट सुन लेता। ऐसी हालत मुझसे बर्दाश्त न होती। उस दिन खाना नहीं खाता था। वो ख्याल रखते कि मुझे पता न चले। लेकिन कैसे? चेहरे से सब पता चल जाता। एक दिन कुछ ज्यादा ही खटपट हुई। भाभीजी तो मुझे सीता समान थी और माताजी तो माता थीं। उस दिन मेरा मन मायूस था। कैसे इन दोनों का माँ-बेटी जैसा प्यार हो। अब याद करता हूँ तो कितनी नादानी कर बैठा था। दुकान से एक टिकिया कुचला जहर की ली, गुड़ में गोलियाँ बनाकर पानी के साथ निगल लिया। चलो, क्या लेना है इस दुनिया से। उस रात मेरी हालत काफी खराब थी। मगर किसी को कुछ कहा नहीं। मुझे दवाई वगैरह भी देते रहे। पिताजी ने बहुत बार पूछा भी, मैंने कुछ न कहा। रात के 12 का टाईम होगा। सब लोग काफी परेशान थे। मैं तो सोच रहा था, अब जिन्दगी का खात्मा होना ही है, खामोश रहा। फिर मुझे उल्टी आ गई। पता नहीं चला, किस वक्त सो गया और सुबह बिल्कुल ठीक था। मैंने इस वाकया का जिकर किसी से नहीं किया। लेकिन उसके बाद माताजी और भाभीजी का झगड़ा नहीं होता था। शायद उन्हें पता चल गया कि मेरी तबियत इसी वजह से खराब होती है।

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

4 thoughts on “स्मृति के पंख – 3

  • Gulshan Kapoor

    पिता जी भावुक तो थे ही। एक आभामय व्यक्तित्व था। उनके साथ हर किसी को सुकून मिलता था।

  • विजय भाई, इस कड़ी को पड़ कर यह पता चलता है कि राधा कृष्ण जी अपनी एजुकेशन से कहीं ज़िआदा उतम सोच रखते थे . इस कहानी से मुझे ऐसा अहसास हुआ कि वे मेरे जैसे भावुक थे , काम करते जाना फल की इच्छा न करना , थोड़े में ही संतुष्ट रहना और रिश्तों में दरार से दुखी होना . और जो जीवनी उन्होंने लिखी है इतनी अच्छी लिखी है कि ऐसा लगता है कोई सामने बैठा सुना रहा है .

  • विजय कुमार सिंघल

    इस कड़ी से पता चलता है कि लेखक बहुत भावुक और संवेदनशील थे।

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की पूरी कथा पढ़कर संतोष का अनुभव कर रहा हूँ। चरित नायक का चरित शुभ गुणों परिपूर्ण एवं प्रेरणादायक है।

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