आत्मकथा

स्मृति के पंख – 9

हमारे साथ के मकान वाले भी कपूर थे। लाला हरीचन्द और गोकुलचन्द। लेकिन हमारे विचारों में बड़ा अन्तर था। वो अंग्रेज नवाज थे और हम आजादी के दिलदाजा। फिर भी दुनियादारी में मैं और गोकुलचन्द दोस्त थे। उसका रिश्ता भी गढ़ी कपूरा में हुआ था। बुआजी उनकी लड़की थी। बुआजी चाचाजी की बहन थी लेकिन हमारे घर पर ही उतना ही अधिकार था और अधिकार रखती भी थी। अगर बुआजी किसी बात पर न कर दें, तो पिताजी भी हां नहीं कर सकते थे। मैं अगर गढ़ीकपूरा कभी जाता, तो मैं बाहर कहीं रात नहीं रह पाता। वह रात वहीं रहना होता। बुआजी की एक लड़की थी, जो दुर्गा माता के आशीर्वाद से पैदा हुई थी और उसका नाम भी दुर्गा था। उसका रिश्ता गोकुलचन्द से हुआ था। बहुत नाजों से पली लड़की थी। उनके जन्म के बाद विद्वान ब्राह्मणों ने यह कहा था कि इस लड़की की शादी उस लड़के से करना, जो मांस शराब का सेवन करने वाला न हो। गोकुलचन्द तो सब कुछ करता था, लेकिन उनके मां-बाप ने कहा कि हमारा कोई लड़का शराब मांस नहीं खाता और न ही कोई नशा करता है। होना तो वही होता है जो ईश्वर को मंजूर हो, लेकिन झूठ बोलकर किसी को धोखा देना इख्लाक और इंसानियत के खिलाफ था। गोकुलचन्द की शादी हो गई। उनका एक लड़का जन्मा, फिर माँ और बाप दोनों बीमार हो गए। मरदान से एक लायक डाक्टर को मैं लाया। दोनों को देखकर उसने एक दवाई लिख दी और दो दिन बाद फिर आने को कहा। जाते हुए मैंने डाक्टर से पूछा कि कैसी हालत है। उसने कहा कि भगवान के हाथ है। मेरी समझ में बच्चा तो बच जायेगा, मां का बचना मुश्किल है और वैसे ही हुआ। दुर्गादेवी शादी के बाद काफी दुखी रही। मेरे पास बैठकर रोती रहती और अपने दुखड़े सुनाती। जो लड़की बहुत नाजों से पली थी, उसका शादी के बाद जीवन इतना दुखी हो जायेगा उसकी मौत भी बहुत खतरनाक थी। ईश्वर की गति कौन जान सकता है। छोटा सा बच्चा यशपाल को छोड़कर स्वर्ग सिधारी। माता दुर्गा से वरदान में पाई देवी का कितना भयानक अन्त था।

रानी बेबे को मैं अपनी सबसे बड़ी बहन समझता, क्योंकि हमारे घर रहने भी आती थी और विदाई भी कपड़ा लत्ता देकर लड़कियों जैसी ही होती थी। बाद में मुझे पता चला कि यह हमारी सगी बहन नहीं है। पिताजी की बहन की लड़की है और जिनकी शादी भी पिताजी ने कराई थी। हमारे घर आना जाना उसका बेटियों जैसा ही था।

एक दफा रामतख्त जाने का प्रोग्राम था। रामतख्त इलाका भुनेर की पहाड़ी इलाका में है। कहावत थी कि वनवास के दिनों में राम-सीता और लक्ष्मण वहाँ भी रहे। मैं, धनीराम और मुंशीराम तीन आदमियों का प्रोग्राम बना। धनीराम उस इलाके से वाकिफ था और मुंशीराम बेबे सीता के देवर। रुस्तम से पैदल रास्ता था। सुबह 4 बजे रुस्तम से चलकर थोड़ा आराम किया। फिर 7 बजे शाम बादशाह नाम का गाँव था वहाँ पहुँचे। उस इलाके वह बड़ा गाँव था, जहाँ हिन्दु लोगों के भी 20-25 घर और दुकानें थी। एक दुकानदार के पास बैठे और उसे बतलाया कि हमने रामतख्त जाना है। उसने रात अपने घर ठहराया। खाना खाने के बाद आराम से सोए सुबह चाय नाश्ते के बाद उसने जरूरी सामान साथ ले जाने वाला बतलाया और खुद ही बाँध दिया, जिसमें चाय, मिश्री कुछ चूर्ण और कुछ खाने का सामान नमकीन था। गाईड का भी कहता था साथ ले लो, लेकिन धनीराम उस इलाके से वाकिफ था, गाईड़ हमने नहीं लिया। उसने कहा आगे एक गाँव आयेगा, जिसका नाम ईलम है। वहाँ से आटा ले लेना, बाकी दूध हर जगह आपको मिलता रहेगा।

सुबह-सुबह पहाड़ी चढ़ना शुरू किया (आगे पहाड़ी रास्ता था सब), जिसमें चिनार के बड़े-बड़े दरख्त और कई किस्म की जड़ी बूटियों के पौधे थे। झरनों का पानी रास्ते में बह रहा था। ईलम पहुँचने पर आटा भी ले लिया। उसके आगे बिल्कुल सीधी चढ़ाई थी। शाम के करीब 7 बजे हम पहाड़ी पर पहुँच गए, जहाँ रात रहना था। एक बड़ा कमरा, जहाँ पत्थर जोड़कर जहाँ कुछ भी नहीं लगा। सिर्फ्र पत्थर के ऊपर पत्थर रखा था, जिसमें तकरीबन 100 आदमी अन्दर लेट सकते थे। आगे थोड़ा रास्ता दर्शन करने वाली जगह तक था। धनीराम ने हमें कहा कि अब मैं पहाड़ी लोगों को बुलाता हूँ, उनके आने पर आपने मुझे पीर साहब कहना है। उसके हाथ में एक लम्बी लकड़ी थी जो साथ लाया था और एक लम्बा कुर्ता पहन लिया। 2-4 दफा चीखकर आवाज लगाई। आवाज पूरी गूंजती सुनी गई। इतने में दो चरवाहे जो बकरियोें को घर ले जा रहे थे आ गए और हमारे कहने पर पीर साहब को सलाम किया। देर थी इसलिए ज्यादा ठहरे नहीं, कहने लगे – सुबह आयेंगे, जो कुछ जरूरत हो कह दो। हमने 2 सेर दूध और एक सेर घी के लिए कह दिया। फिर थोड़ा नाश्ता जो अपने पास था किया और एक दरख्त जो सूखा पड़ा था गिरा हुआ उसको कमरे के अन्दर ले गए और आग लगा दी, क्योंकि काफी सर्दी थी।

आराम से सोए सुबह धूप निकलते ही वो चरवाहे दूध और घी लेकर पहुुंच गए। धनीराम को सब काम आता था। रोटियां पकाने के लिए आग जलाकर गर्म कर लिया, उस पर तन्दूर की तरह रोटियां लगा दी, बहुत बढ़िया पक गई। उन चरवाहों को पैसे देने लगे तो लेने से इनकार कर दिया और कहा हमें तो दुआ दें या कोई दवाई आपके पास हो तो दें। धनीराम ने रास्ते में गंदा बरौजा की छोटी-छोटी गोलियां बनाकर डब्बी में रखी थीं, किसी बीमारी के लिए दूध के साथ, किसी बीमारी के लिए पानी के साथ और किसी बीमारी के लिए चाय के साथ लेने के लिए कह दिया। दूसरे दिन 10-12 चरवाहे आ गए। सबको ऐसे ही दवाई देते रहे। जाते हुए सब लोग कोई खिदमत के लिए कहते। लोग संक्रांत के दिन रामतख्त पहुँचते थे। हम 2 दिन पहले पहुँचे थे, 2 दिन खूब आनन्द से रहे। ऊपर जाकर वो स्थान देखा। एक चोटी पर बिल्कुल साफ जगह बनी है और एक चूल्हे की शक्ल भी बनी है जैसे रसोई बनाने की जगह हो और साथ में दूसरी चोटी पर लक्ष्मण को पहरा देने वाला स्थान जाहिर करते थे जो उस चोटी के बिल्कुल नजदीक थी। मुसलमान लोग उस जगह को जोगियों का टीला कहते थे। तीसरे दिन संक्रांत थी तकरीबन 100-125 आदमी आ गए थे और कुछ पूजा पाठ करके उसी दिन शाम को वापिस बरास्ता रखा उतरे।

मुझे कुश्ती और कबड्डी में दिलचस्पी हो गई थी। भाई साहब तो टीम में खेलने वाले थे। इलाका के अच्छे खिलाड़ियों में मशहूर थे। मुझे भी कुछ दांवपेंच उन्होंने सिखाए थे। एक दिन एक सैयद मुसलमान था साहिबजादा। मुझसे काफी मजबूत भी था और लम्बा भी था। मेरे साथ कुश्ती में आ गया। उसका ख्याल था जाते ही मुझे गिरा लेगा, लेकिन वो मेरे हाथों गिर गया, बहुत शर्मिंदा हुआ। एक तो शक्ल में मुझसे ड्योढ़ा था, दूसरा सैयद था। लोग उससे मजाक करने लगे कि उस हिन्दू से गिर गया। उसने बदला लेने की भावना दिल में रखी। एक दिन दुकान पर मैं अकेला था, उसने आते ही मुझे उठाया और दरवाजा की दहलीज पर दे मारा जिससे मेरे बाजू की हड्डी टूट गई। मैं चिल्लाने लगा। पिताजी भ्राताजी आ गए। वो तो भाग गया था। बाजू कोहने से बिल्कुल लटक रहा था। कुहनी के निचली हड्डी ऊपर आ गई थी। पिताजी ने भ्राताजी को कहा कि वली शाह नाई को बुला लाओ। वली शाह एक बुजुर्ग नाई था आते ही उसने मीठा तेल और हल्दी मांगी। पहले तेल से आहिस्ता-आहिस्ता मालिश करता रहा फिर मेरा ध्यान दूसरी तरफ करके उसने जोर से बाजू को खींचा मेरी तो चीख निकल गई। बड़ा दर्द हुआ, लेकिन जब देखा तो हड्डी ठीक हो गई थी और फिर हल्दी लगाकर एक लकड़ी की पट्टी ऊपर बांध दी। 5 दिन बाद दोबारा खोलकर उसने देखा। बाजू को उठाकर कन्धों तक ऊपर नीचे करता रहा। बस ऐसे ही 2-3 दफा 5-5 दिन बाद किया और बाजू खोल दिया। लगता था बिल्कुल ठीक है और उसके बाद आज तक उस बाजू में रत्ती भर कमजोरी का मुझे एहसास नहीं है।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 9

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आत्मकथा की घटनाएँ सजीव बन गई हैं। दुर्गा देवी जी की मृत्यु, उसकी पृष्ठभूमि और परिस्थितियों को जानकार दुःख हुआ।

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक कहानी !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    यह कड़ी भी बहुत दिलचस्प लगी , लगा जैसे मैं भी उन पहाड़ों में घूम रहा हूँ . उस समय के हालात मालूम हुए जब सभी रल मिल कर रहते थे.

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