आत्मकथा

स्मृति के पंख – 14

अब दुकान की हालत फिर से ठीक होने लगी। कुछ दिन बाद एक रात को बरकत (यह सकीना की बड़ी बहन का खाविंद था), उसका भाई आबाद खान और एक नम्बरदार फिरोज खान आये। रात के तकरीबन साढ़े दस का टाईम था। मैंने दुकान पर ग्रामोफोन लगाया था और 4 दोस्त भी बैठे थे। बरकत ने आकर कहा कि ग्रामोफोन बंद करो। मैंने कहा- क्यूं बंद करूं? मेरी अपनी दुकान है और अपना ग्रामोफोन। उसने कहा- नमाज का समय है, हम नहीं बजने देंगे। मैंने कहा- तुम तो कभी मस्जिद जाते भी नहीं। मैंने मियांजी से पूछ रखा है, उसने कहा है साढ़े 9 के बाद ग्रामोफोन लगा लिया करो। लेकिन वह लोग तो झगड़ा करने की नीयत से आये थे। वाहियात बकने लगे। जो लोग मेरे पास बैठे थे, उनमें से एक नम्बरदार का शाहजादा था। मेरे पास आकर कहने लगा, घबराना नहीं, यह लोग झगड़ा करने आये हैं।

शाहजादा ने उठकर कहा कि देखो बरकत तुमने अगर लड़ाई-झगड़ा करना है, तो एक के साथ एक जोर आजमाइश करवा लो। इसी बीच हमारी हाथापाई हो चुकी थी। शाहजादा ने उन्हें वार्निंग दी कि अगर दूसरा कोई लड़ाई में आया, तो फिर हम लोग भी लड़ेगें। इसी शोर शराबे में पिताजी और भ्राताजी भी आ गये। मुझे देखकर उन्होंने कहा तुम इतनी देर दुकान क्यों खुली रखते हो। 9 बजे से पहले दुकान बंद कर दिया करो। ग्रामोफोन बजाना है तो अपने कमरे में बजा लिया करो। उन लोगों से कहा कि तुम जैसा कहोगे हम वैसा ही करेंगे। रहना तो हमने भी इसी गाँव में है, लड़ाई झगड़ा क्यूं करते हो और वह लोग चले गये। मुझे इतनी देर बैठने में यह लालच थी कि गरमी के दिन थे और रात को देर तक लोग भुट्ठे लाते रहते। उसके बाद 9 बजे ही दुकान बंद कर देता।

कुछ अरसा बाद मेरी शादी की बातचीत शुरू हुई। तारीख 8 भादों सन् 1933। पहले तो बारात को बाहर ठहरा कर मैं और भ्राताजी थाने में गये, हाजरी लगवाने के लिए कि शादी है। रात गढ़ीकपूरा में रहेंगे और कल को डोली आयेगी। अन्दराज करने के बाद मुहर्रर ने यह बात मान ली कि कल दोबारा हाजरी लगाने की जरूरत नहीं है। इतने में एक अंग्रेज अफसर आ गया और उसने कहा- कल वापसी पर भी हाजरी लगा कर जायें।

दूसरे दिन डोली तो पैदल रास्ते से बारातियों के साथ आई, लेकिन हम दोनों भाई मरदान थाना में इत्तलाह देने के बाद हम गाँव जा रहे थे। डोली हमारे आने से पहले ही घर पहुँच चुकी थी। अब भगतराम तो रिहा हो चुके थे। पहले भी तो जमींदारी का काम नहीं करते थे। जमींदारी का काम शहीद हरिकिशन करता था। उसकी शहादत के बाद जमीनों का काम अनन्तराम के जिम्मे था। अनन्तराम ने मुझे बहुत प्यार और इज्जत दी। अब मैं सिगरेट भी पीने लगा था और पार्टी या ब्याह शादी में शराब भी पीने लगा था। तलवाड़ खानदान पूरा मांसाहारी था और मैं शाकाहारी। मुझे उन लोगों ने कभी मजबूर नहीं किया इस बारे में। एक दस्तरखान पर भी मेरा खाना शाकाहारी होता।

अब भ्राताजी ने मरदान काम करने का सोचा। एक बजाजी वाले से बातचीत कर ली। मैंने ज्यादा तफतीश से तो नहीं पूछा कि यह काम कैसे करोगे, लेकिन भ्राताजी ने तय कर लिया। हमारी आपस में यह बात हुई कि मरदान दुकान का मुनाफा, विद्या बहन की शादी के काम आयेगा और तुम जरूरी सामान जैसे आटा, घी, जरूरी बिस्तरें भिजवाते रहता। और फिर भाईसाहब और भाभीजी भी मरदान चले गये। मुझे उनके जाने का दुख था, लेकिन मन में खुशी भी थी कि अब से शहरी जिन्दगी शुरू हो जायेगी। दुकान का काम अब मैं अकेले ही संभालता। पिताजी कभी थोड़ा समय आ जाते। थोड़ा सामान जरूरत होता, तो भ्राताजी को जिम्मा देता कि अमीरखान को खरीदकर दे दो।

शुरू में गढ़ीकपूरा जाने के लिए स्पेशल तांगे पर भी मुश्के का इस्तेमाल किया था, लेकिन मुझे परदे से नफरत थी, जल्दी ही मुश्का उतरवा दिया। एक दफा सर्दियों के दिन थे। हम गढ़ीकपूरा जा रहे थे। मैं बीवी को ‘सुशीला’ कह कर बुलाता था, नाम था उसका गंगामूर्ति। उसने कहा कि गर्मशाल उसके पास नहीं है। मैंने मरदान कपड़े से शाल खरीद दी। 7 रुपये का गर्म दुशाला। एक दूसरी 11 रुपये वाली भी थी, पर रंगत और डिजाइन से मुझे 7 रुपये वाली पसन्द थी। फिर महीना डेढ़ महीना बाद भ्राताजी सुशीला को लाने के लिए गये। पहले पहले घर में बुजुर्ग लोग ही बहू को लाने जाते थे। वापसी में मरदान में थोड़ा सामान भी खरीद कर रखवा लिया। कुछ देर हो गई थी। पुख्ता सड़क से जो गाँव को कच्चा रास्ता जाता था डेढ़ या 2 मील का था। अब शाम ढल चुकी थी, अंधेरा हो गया था। कच्चा रास्ता तय हो जाने के बाद तांगा उछलने से सुशीला पीछे से गिर गई। उसने न तो भ्राताजी को आवाज दी न तांगे वाले को। यह तो खुशकिस्मती थी कि थोड़ी दूर पर कीचड़ का गड्ढ़ा था, जिसमें तांगा फंस गया। और सुशीला जैसे गिरी थी और वैसे ही उसमें बैठ गई। इतनी सादगी थी उस समय सुशीला में।

अनन्तराम से जब मुलाकात हुई तो कहता था कि भाभीजी बहुत सादा हैं। लेकिन जब 6-7 महीने बाद फिर मिले, तो कहने लगे कि भाभीजी को तुमने बिल्कुल बदल डाला। पहले तो उसको लगता था कि भाभीजी इतनी शरमाती क्यूं हैं? और अब वह बिल्कुल बदल चुकी हैं। बाकी बातें भी पूरी करती हैं और जवाब भी अच्छे ढंग से देती हैं। इतनी जल्दी यह कमाल कैसे हो गया? और अनन्तराम की यह बातें बिल्कुल ठीक थीं। इतनी सादगी थी इसमें।

2 साल बाद बेटी का जन्म हुआ। नामकरण हुआ ‘राज’। सुन्दर और अच्छी सेहतमंद थी। भ्राताजी ने कटासराज जाने का प्रोग्राम बनाया और मुझे लिखा कि तुम भी तैयारी कर लो। यात्रा इकट्ठी करेंगे। हम दोनों भाई और दीगर तीन खानदान और भी थे। पहले गाड़ी का सफर था, फिर बजरिया बस जाना था। फिर पैदल चढ़ाई, पहाड़ी रास्ता था। खाने का सामान साथ लेकर चढ़ाई शुरू कर दी। काफी देर चलने पर थक भी गये थे। दूसरी तरफ से मुसलमान लोग उतर रहे थे। उनसे पूछते कि कटासराज कितना दूर है, तो वह कहता यह बस आगे ही है। चलते-चलते तकरीबन 8 बजे कटासराज की बिजली की रोशनी नजर आई। साथ ही कुछ हिम्मत भी बंधी। तकरीबन रात 9 बजे हम कटासराज पहुँचे। रास्ते में राज की तबीयत खराब हो गई थी। 2 दिन वहाँ आराम किया। वैसाखी वाले दिन बहुत भारी रश था। ऐसे ही साधु महात्मा लोग थे, जैसे हरिद्वार में देखने को मिलते थे। सरोवर की गहराई का कहीं कहीं से पता ही नहीं चलता। वहाँ एक नौजवान डूब कर मर भी गया था। तीसरे दिन वहाँ से वापसी पर वाया फीवड़ा आने का प्रोग्राम बनाया, यानि दूसरी तरफ से उतरना था। जहाँ एक पूरा पहाड़ नमक का है। चमकदार लाल रंग का, शीशा की तरह साफ। उसके बीचों-बीच रास्ता बहुत भला लगता था।

दोपहर तक चलते चलते थक भी गये थे और कुछ गर्मी भी लगने लगी थी। अब तक रास्ता चढ़ाई का था, अब उतरना था। उस जगह एक आश्रम बना था, थोड़ा समय वहाँ ठहरे। कुएं पर ठण्डे पानी का इंतजाम था। साथ में सायादार दरख्त, ठंडी ठंडी हवा। आराम से लेटने बैठने का इंतजाम बहुत अच्छा था। थोड़ा देर ठहरे, पानी पिया। आश्रम की तरफ से तन्दूर की 2-2 रोटियां और साथ में लोबिया उबला हुआ प्रसाद में मिला। उस थकावट और भूख से उसे खाने में इतना मजा आया। मन को पूरा संतोष मिला। आते समय रास्ता में चैया सैदन शाह भी देखा, जो मुसलमानों की किसी पीर की दरगाह (कब्र) है। वहाँ गुलाब के फूलों के बहुत बड़े बड़े फार्म हैं और साथ अस्क कशीद हो रहा था। चारों तरफ खुशबू ही खुशबू थी। ऐसा रहा कटासराज की यात्रा का सफर।

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 14

  • Man Mohan Kumar Arya

    आत्मकथा को आरम्भ से अंत तक पढ़ा। अपने पूर्वार्त्ति पाठक महानुभावों के टिप्पणियाँ भी देखीं। हार्दिक धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    ये 72 हूर कामी शांतिप्रिय समुदाय के लोग हर जगह जहाँ भी अधिक संख्या मने होते हैं अपनी दादागिरी या गुन्दगिर्दी चलते हैं. कश्मीर, केरल, अलीगढ, मुरादाबाद, … किसी भी शहर कसबे का नाम लो यही कहानी है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत दिलचस्प जीवनी , छोड़ने को मन ही नहीं करता . ग्रामोफोन वाली बात , हमारे गाँव में भी ऐसे झगडे होते थे .

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