आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 53)

1994 में जनवरी माह में मैं एक पुत्री का पिता बना। मेरे एक पुत्र था ही। एक पुत्री और हो जाने पर श्रीमती जी की दृष्टि में परिवार पूरा हो गया। हालांकि मैं कम से कम तीन बच्चे चाहता था, परन्तु श्रीमती जी इसके लिए तैयार नहीं हुईं। एक बार उम्मीद हुई भी, तो उन्होंने आगरा जाकर मुझसे पूछे बिना ही गर्भपात करा लिया। पता चलने पर मुझे बहुत दुःख हुआ, परन्तु क्या कर सकता था? हमने अपनी पुत्री का नाम अपनी छोटी भाभीजी के सुझाव पर ‘आस्था’ रखा। वैसे घर में उसे ‘मोना’ कहते हैं। जिस दिन मोना पैदा हुई थी, उसके अगले ही दिन मेरी बहिन गीता को दूसरी लड़की पैदा हुई। उसका वास्तविक नाम शिप्रा और प्यार का नाम ‘सिम्मी’ है।

यहाँ मुझे एक बात याद आ गयी। एक बार हम रविवार की दोपहर को कानपुर में मोतीझील के किनारे धूप खा रहे थे, क्योंकि हमारे फ्लैट में तब धूप नहीं आती थी। वहीं एक प्रौढ़ा सरदारनी भी दो नवयुवतियों के साथ धूप खाने आयी हुई थीं।  जब हम अपनी बेटी को ‘मोना-मोना’ कहकर पुकार रहे थे, तो वे चौंक गयीं। उन्होंने हमारी श्रीमती जी को बताया कि उनके साथ जो दो लड़कियाँ हैं उन दोनों का नाम ‘मोना’ है। उनमें से एक उनकी बेटी है और दूसरी बहू है। दोनों बचपन से पक्की सहेलियाँ हैं। उनकी बेटी ने अपनी सहेली को जिद करके अपनी भाभी बनाया है। हमें यह जानकर बड़ा आनन्द आया।

जुलाई 1994 में दीपांक पूरे 4 साल का नहीं था, फिर भी हमने उसे शिक्षा हेतु विद्यालय में प्रवेश दिला दिया। हालांकि मैं चाहता था कि उसे अभी एक साल और खेलने देते, लेकिन उसकी माँ नहीं मानीं। आसपास कोई अच्छा स्कूल नहीं था, इसलिए हमने उसे सरस्वती शिशु मंदिर, खजुरी में प्रवेश कराया, जो वरुणा नदी के पार वहाँ से करीब 3 किलोमीटर दूर था। कुछ समय पहले तक गोपाल जी के दोनों पुत्र दाऊदयाल और विवेक भी उसी विद्यालय में पढ़ते थे। आसपास के कुछ बच्चे भी उसमें पढ़ते थे, जो स्कूल की बस से आते जाते थे। दीपांक भी उसी बस से आने-जाने लगा।

एक बार दीपांक खोते-खोते अपनी ही बुद्धि से बच गया। हुआ यह कि उस दिन तक उसे स्कूल जाते हुए चार या पाँच दिन ही हुए थे। जब वह बस से लौट रहा था और बस हमारी कालोनी के गेट पर रुकी तो शायद दीपांक का ध्यान कहीं और था, इसलिए वह नहीं उतरा। बस पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए वापस स्कूल पहुँच गयी और दीपांक उसी में बैठा रहा। जब ड्राइवर ने देखा कि एक बच्चा अभी बैठा ही रह गया है, तो उसने विद्यालय के अध्यापकों को बताया। अध्यापकों ने उसकी डायरी देखी तो पता चला कि उसे अनंता कालोनी के बाहर उतरना था। तब उन्होंने हमें फोन किया। इधर उसकी माँ घबरा रही थीं कि दीपांक अभी तक क्यों नहीं आया। मैं तो कार्यालय में था। स्कूल से फोन आने पर उन्होंने हमारे कार्यालय में फोन किया। फिर मैं एक दोस्त के स्कूटर पर बैठकर विद्यालय की ओर भागा, तो वह रास्ते में ही एक अध्यापक के साथ रिक्शे पर आता हुआ मिल गया। विद्यालय के अध्यापकों ने बाद में हमसे कहा कि आपका बेटा बहुत समझदार है कि किसी गलत जगह पर नहीं उतरा। अगर कोई और बच्चा होता, तो पूरे शहर में कहीं भी उतर जाता और खो जाता।

1994 में ही मुझे एक पेपर प्रस्तुत करने के लिए दिल्ली जाने का अवसर मिला। कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इंडिया के दिल्ली चैप्टर ने ‘भारतीय भाषाओं में सूचना प्रौद्योगिकी का विकास’ विषय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसका नाम था ‘अक्षर’। इसकी सूचना कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इंडिया की मासिक पत्रिका में निकली थी और उसके लिए पेपर आमंत्रित किये गये थे। सम्मेलन का विषय मेरा सबसे अधिक प्रिय विषय था, इसलिए मैंने एक लेख ‘कम्प्यूटरों के लिए देवनागरी कुंजीपटल का मानकीकरण’ शीर्षक से तैयार करके उसका सारांश भेज दिया। सौभाग्य से वह स्वीकार भी हो गया। मुझे आशा थी कि पेपर प्रस्तुतकर्ता होने के अधिकार से मुझे सम्मेलन में स्वतः ही पंजीकृत कर लिया जाएगा। उसका पंजीकरण शुल्क एक हजार रुपये था, जो उस समय मेरे लिए एक बड़ी रकम होती थी।

उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शीत-शिविर प्रयाग में लगने वाला था। सौभाग्य से सम्मेलन और शिविर दोनों की तारीखें अलग-अलग थीं। उनके बीच में केवल एक रात्रि थी। इसलिए मैंने यह निश्चय किया कि शिविर में शामिल होकर समापन वाले दिन ही रात्रि में इलाहाबाद से ही दिल्ली की गाड़ी पकड़कर सम्मेलन वाले दिन सुबह ही दिल्ली पहुँच जाऊँगा। इसी के अनुसार मैंने प्रयागराज एक्सप्रेस में इलाहाबाद से दिल्ली तक अपना आरक्षण करा लिया। इसके साथ ही मैंने सम्मेलन के अन्तिम दिन दिल्ली से वाराणसी लौटने का भी आरक्षण करा लिया।
अगली समस्या दिल्ली में ठहरने की थी। मेरे जो दोस्त पहले दिल्ली में थे, वे सभी तब तक दिल्ली छोड़कर जा चुके थे और उनके साथ मेरा सम्पर्क भी टूट गया था। श्रीमतीजी के मौसाजी दिल्ली में उत्तम नगर में रहते हैं। मैं वहाँ आराम से ठहर सकता था, परन्तु मेरा सम्मेलन स्थल होटल अशोक में था (जिसे अशोका होटल बोलते हैं)। वह उत्तम नगर से बहुत दूर है और आने-जाने में बहुत समय नष्ट होता है।

इसलिए मेरा विचार चाणक्यपुरी या कनाट प्लेस के आसपास कहीं ठहरने का था। यहाँ काशी के तत्कालीन जिला प्रचारक श्री चन्द्रमोहन जी मेरी सहायता को आगे आये। उन्होंने बताया कि मीरजापुर-भदोही के तत्कालीन सांसद श्री वीरेन्द्र सिंह से उनकी बहुत घनिष्टता है और मेरे ठहरने की व्यवस्था उनके सरकारी निवास पर हो सकती है। चन्द्रमोहन जी ने अपना एक पत्र भी लिखकर मुझे दे दिया। संयोग से प्रयाग के शीत शिविर के दूसरे दिन श्री वीरेन्द्र जी स्वयं भी वहाँ आ गये और चन्द्रमोहन जी ने मेरा परिचय उनसे करा दिया। अब मैं निश्चिंत था।
शिविर के समापन के दिन शाम को मैं श्री नरेन्द्र जी द्विवेदी, जो वाराणसी के एक प्रमुख स्वयंसेवक हैं और जिनके चाचा इलाहाबाद में ही रहते हैं, के साथ स्टेशन पहुँच गया। टैम्पो की वजह से हम 5 मिनट लेट हो गये थे और गाड़ी चलने को तैयार खड़ी थी। किसी तरह दौड़कर मैं अपने डिब्बे में चढ़ गया। वैसे गाड़ी एक घंटे बाद ही चल पायी, क्योंकि उसे किसी नेताजी के पधारने का इंतजार था।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

9 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 53)

  • अरुण निषाद

    shobhanam….

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार !

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की किश्त को पूरा पढ़ा। प्रभावशाली है। श्री गुरमेल सिंह जी की टिप्पणियों व आपके उत्तर को भी देखा। लेख पढ़कर श्री विजय जी एक सैद्धांतिक एवं आदर्शवादी व्यक्ति सिद्ध होते है। आपका जीवन दिव्य एवं प्रेरणादायक है। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर ! यह सब आप जैसे वरिष्ठजनों और गुरुजनों का आशीर्वाद है.

      • Man Mohan Kumar Arya

        इसका मुख्य कारण आपका प्रारब्ध, माता – पिता व गुरुजनों के संस्कार एवं आप का स्वंयम का जीवन है। धन्यवाद एवं शुभकामनायें।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज का कांड भी जाना और यह भी जाना कि बचों के इस तरह खो जाने से कितनी परेशानी होती है. और आप के बेटी हुई लेकिन आप तीन बच्चे चाहते थे . यह तो जो भाग्य में लिखा है वैसा ही होगा लेकिन मुझे एक बात पर हैरानी होती है कि हम लोग कम से कम बच्चे पैदा करते हैं . मेरे पहले दो बेतिआं हुई थीं और बेटे की चाहत थी तो बेटा भी आ गिया और साथ ही फुल स्टॉप लग गिया . मेरे तीनों बच्चों के दो दो बच्चे ही हैं . यहाँ तक कि मेरे दोस्त बहादर के भी दो बच्चे थे और अब उन के बच्चों के भी दो दो बच्चे हैं . मेरे कहने का मकसद यह है कि मुसलमान लोग धड़ धड़ बच्चे तब तक पैदा किये जाते हैं जब तक उन की औरतें बच्चे पैदा करने से असमर्थ नहीं हो जातीं . ऊपर से लव जिहाद . तो यह तो एक दिन हो ही जाएगा कि हिन्दू सिख माइनौरिटी में हो जायेंगे .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! आपका कहना सवा सोलहो आने सच है. हिन्दू कम संख्या में बच्चे पैदा करते हैं जबकि मुसलमान किसी परिवार नियोजन को नहीं मानते और पिल्लों कि तरह बच्चे पैदा किये जा रहे हैं. सारी दुनिया में यही हो रहा है. इसी कारन मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है. इसका संधान वह है जो चीन में किया गया है कि जो भी दो से ज्यादा बच्चे पैदा करे उसे पकड़ कर जेल में डाल दो.

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        विजय भाई , क़ानून सब के लिए एक होना चाहिए . संजय गांधी के समय सारे देश का तो मुझे पता नहीं लेकिन पंजाब में जगह जगह दीवारों पर पोस्टर लगे हुए थे , “एक के बाद अभी नहीं , दो के बाद कभी नहीं”. इस का पालन अभी तक हो रहा है . अब कोई किसी को कहता नहीं लेकिन लोग खुद ही दो बच्चों से ज़िआदा और नहीं चाहते ताकि बच्चों की परवरिश अच्छी हो सके . यह जो कुतिया की तरह बच्चे पैदा कर रहे हैं , इस पे क़ानून बनना चाहिए . चीन और भारत में यह ही फरक है कि चीन में जो क़ानून बनता है उस पे सख्ती से लागू होता है लेकिन भारत में फाइलों में ही पड़ा रहता है .

        • विजय कुमार सिंघल

          सही कहा, भाई साहब ! भारत में कानून लागू करने वाली शक्तियां बहुत लचर हैं.

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