आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 23)

नये मकान में

हमारा नया मकान भी अशोक नगर में ही सड़क के बीच वाले मंदिर के पास था। उसके मकान मालिक थे श्री लालता प्रसाद तिवारी। हम दिसम्बर 2003 की 15 तारीख को उसमें गये थे। पिछले मकान से हमें 15 दिन का किराया वापस मिला था, जो हमने नये मकान मालिक को दे दिया।

नया मकान यों तो बहुत अच्छा था। लेकिन उसमें एक गड़बड़ थी। वहाँ मकान मालकिन बुढ़िया बहुत बकबक करती थी। हर किसी के ऊपर दिनभर चिल्लाया करती थी और किरायेदारों को भी नहीं बख्शती थी। हमने गलती यह कर दी कि उस मकान में आने से पहले दूसरे किरायेदारों से बात नहीं की, नहीं तो हमें पता चल जाता कि इसमें बुढ़िया बहुत चिल्लाती है और हम उसमें आते ही नहीं। वह जरा-जरा सी बात पर चिल्लाती थी, जैसे- यह दरवाजा मत खोलो, सीढ़ियों की लाइट मत जलाओ, बालकनी में कूलर मत रखो, कील मत ठोको, पानी ज्यादा खर्च मत करो आदि।

बालकनी में कूलर न रखने देने पर मुझे सबसे अधिक गुस्सा आता था। मैं चाहता था कि उसको एक बार हड़का दिया जाये, तो चुप हो जाएगी। परन्तु श्रीमती जी ने मुझे नहीं बोलने दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि वह बुढ़िया तो चुप नहीं हुई, लेकिन श्रीमती जी को टेंशन हो गया। लगातार टेंशन रहने से उनको सिरदर्द की बीमारी हो गयी। एक बार एमआरआई भी कराना पड़ा, जिसमें मेरे हजारों रुपये खर्च हो गये, लेकिन सौभाग्य से नाॅर्मल निकला। परन्तु श्रीमती जी का टेंशन बहुत बढ़ गया। एक दिन जब बुढ़िया अपनी दैनिक आदत के अनुसार बक-बक कर रही थी, तो तनाव सहन न कर पाने के कारण श्रीमतीजी रोने लगीं। तब मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उस बुढ़िया को बहुत हड़काया। वह जितनी जोर से बोलती थी, मैं उससे भी ज्यादा जोर से बोला। उसके घर वालों ने हाथ-पैर जोड़कर मुझे चुप कराया।

उस दिन के बाद बुढ़िया का चिल्लाना समाप्त हो गया, क्योंकि पहली बार सेर को सवा सेर मिला था। अगर मैं शुरू में ही उसे हड़का देता, तो उसकी बक-बक तभी बन्द हो जाती। लेकिन श्रीमती जी ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया, जिससे समस्या बढ़ गयी। इस घटना के बाद हमने तय कर लिया था कि अब इस घर में नहीं रहना है। इसलिए मैंने मकान देखना शुरू किया। सौभाग्य से हमें पास में ही नेहरू नगर में एक मकान मिल गया, जो हालांकि बहुत अच्छा नहीं था, लेकिन काफी ठीक था और सबसे बड़ी बात यह थी कि मकान मालिक और मालकिन बहुत ही अच्छे थे। हम वहाँ आराम से रहने लगे। पिछले मकान मालिक ने हमसे 10 हजार रुपये सिक्योरिटी जमा करायी थी, उसमें से केवल 8 हजार वापस दिये। कई बार माँगने पर भी उन्होंने बकाया 2 हजार नहीं दिये, हालांकि हमने बिजली और पानी का सारा बिल जमा कर दिया था।

मम्मी का देहान्त

कैंसर बहुत ही खराब रोग है। इसका कोई इलाज भी ऐलोपैथी या किसी भी पैथी के पास नहीं है। हमारे रिश्तेदारों और परिवार में कई लोग इसका ग्रास बन चुके हैं। दुर्भाग्य से हमारी माँ को भी आँतों और लीवर का कैंसर हो गया। इसका पता तब चला था, जब मम्मी हमारे साथ कानपुर में थी। हम चाहते थे कि वह हमारे साथ रहे और इलाज कराये। मैं जानता था कि आगरा में जायेगी तो घर वाले उसे किसी नर्सिंग होम में भरती करा देंगे और वहाँ डाक्टर उसे समय से पहले ही मार डालेंगे। मैंने बहुत आग्रह किया कि यहीं रहो, पर वह न मानी और आगरा चली गयी। जैसी कि मुझे आशंका थी, वहाँ जाकर उसकी तबियत बहुत खराब हो गयी। कुछ भी खाया-पिया नहीं जाता था। सब पलट देती थी। धीरे-धीरे वह कमजोर होती गयी। एक बार कैंसर का आॅपरेशन भी हुआ, लेकिन रोग बहुत फैल चुका था, इसलिए इसके दो-तीन महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी।

मैं उस समय कानपुर में था। डाक्टर भाईसाहब ने हमें तत्काल आने के लिए फोन किया। हम समझ गये कि कोई अनहोनी होने वाली है। किसी तरह बिना आरक्षण के एक रात्रि की ट्रेन में बैठकर हम आगरा पहुँच गये। आॅटो रिक्शा से घर के दरवाजे पर पहुँचते ही देखा कि भीड़ लगी है। हमें कारण समझने में देर नहीं लगी। उसी रात्रि में मम्मी हमारा साथ छोड़ गयी थी और उसकी पार्थिव देह पड़ी हुई थी। बड़े भाईसाहब के आने का इंतजार किया जा रहा था, जो किसी काम से अलीगढ़ गये थे। उनके आने पर मम्मी का अंन्त्येष्टि संस्कार ताजगंज के श्मशान घाट में किया गया।

हम सब भाइयों को घोर गरीबी में भी मम्मी ने तमाम मुसीबतें सहते हुए पढ़ाया था और किसी लायक बनाया था। उसका बिछोह बहुत पीड़ादायक था, लेकिन हरिइच्छा समझकर सहन कर लिया। आज भी हमें उसकी याद आती है, तो आँखें छलक पड़ती हैं। मुझे सबसे ज्यादा चिन्ता पिताजी की थी। जब दोनों साथ थे, तो मुझे चिन्ता नहीं होती थी, क्योंकि वे एक-दूसरे का ध्यान रख लेते थे। मम्मी के जाने के बाद पिताजी बहुत ही अकेले हो गये हैं। हालांकि हम सभी भाई और उनकी पत्नियाँ भी उनका पूरा ध्यान रखती हैं, लेकिन मम्मी का स्थान कोई नहीं ले सकता।

पैर में चोट

मम्मी की तेरहवीं के बाद मैं कानपुर लौट कर आया ही था कि कुछ दिन बाद शाखा में कबड्डी खेलते हुए विपक्षी टीम के एक खिलाड़ी ने (जिनका नाम लिखना मैं यहाँ उचित नहीं समझता) मेरे पैरों को इतनी बुरी तरह जकड़ा कि दायें पैर की नसें दब गयीं और बहुत चोट आयी। हालांकि फ्रेक्चर नहीं था, लेकिन मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जाता था, चलना और सीढ़ियाँ चढ़ना तो असम्भव ही था। श्रीमती जी चाहती थीं कि मैं डाक्टर के पास जाऊँ। परन्तु मैंने दृढ़ता से इनकार कर दिया। मैं जानता था कि वे मेरे पैर पर प्लास्टर चढ़ाकर एक महीने के लिए मुझे बिस्तर पर पटक देंगे और मैं हमेशा के लिए लँगड़ा हो जाऊँगा।

वहीं घर से थोड़ी दूर नेहरू नगर के कमला पार्क में एक पहलवान बैठता था, जो मालिश वगैरह करके मोच ठीक करता था। मैं एक मित्र स्वयंसेवक के कंधे पर चढ़कर उसके पास गया। उसने जाँच करके बताया कि फ्रैक्चर नहीं है और दब जाने के कारण नसों में सूजन आ गयी हैं, जो धीरे-धीरे टहलने और कुछ दिन आराम करने से ठीक हो जाएगी।

यह जानकर कि केवल नसों में सूजन है मुझे बहुत सन्तोष मिला। मैं जानता था कि इसका इलाज गर्म-ठंडी सिकाई है। इसलिए मैंने उसी दिन से अपने पैर की गर्म-ठंडी सिकाई चालू की। श्रीमतीजी को इसमें विश्वास नहीं था, इसलिए सारी व्यवस्था मुझे स्वयं करनी पड़ती थी। वे कभी-कभी कृपापूर्वक केवल पानी गर्म कर देती थीं। एक पैर पर उछलते हुए मैं चलता था और बाथरूम- शौच वगैरह भी स्वयं कर आता था। हर बार गर्म-ठंडी सिकाई करने से मुझे बहुत आराम मिलता था। इसके साथ ही मैं रोज 3-4 मिनट के लिए वज्रासन पर भी बैठता था, क्योंकि मैं जानता हूँ कि पैरों की विकृतियों को दूर करने में वज्रासन रामवाण है। मेरे एक मित्र श्री प्रवीण कुमार का पैर वज्रासन से ही सामान्य हुआ था। प्रारम्भ में वज्रासन करने में मुझे बहुत कष्ट होता था, लेकिन चोट लगने के तीसरे ही दिन मैं एक मिनट इसमें बैठ गया। फिर तो रोज ही बैठने लगा। इससे मुझे लाभ भी बहुत हुआ। हालांकि श्रीमतीजी का आग्रह निरन्तर जारी था कि डाक्टर के पास जाओ, परन्तु मैं एक मिनट के लिए भी किसी डाक्टर के पास नहीं गया।

जिस दिन मुझे चोट लगी थी, उस दिन छुट्टी थी और आगे भी दो दिन की छुट्टी थी। फिर मैंने 2 दिन की छृट्टी और ले ली। इन पाँच दिनों में ही मुझे इतना लाभ हो गया कि मैं अपने आप सीढ़ियाँ चढ़ और उतर लेता था तथा थोड़ा-थोड़ा चल लेता था। पाँच दिन बाद मैं रिक्शे से आॅफिस जाने लगा, हालांकि श्रीमती जी चाहती थीं कि मैं एक हफ्ते और आराम करूँ। लेकिन बेकार बैठना मेरी आदत नहीं है। इसलिए कार्यालय जाने लगा। मैंने वज्रासन और गर्म-ठंडी सिकाई 15 दिन तक जारी रखी। इससे पैर लगभग पूरा ठीक हो गया और मैं बिना लँगड़ाये चलने लगा। लेकिन कार्यालय पूरे एक माह तक रिक्शे से ही गया। फिर पहले की तरह पैदल ही जाने लगा।

मेरे कार्यालय में एक बाबू थे श्री अनिल गिलोत्रा, वे फिजियोथेरापिस्ट भी थे। उन्होंने मुझसे बहुत कहा कि पैर में पट्टी बाँधा करो, नहीं तो पैर हमेशा के लिए खराब हो जाएगा। लेकिन मैंने क्षमा याचना के साथ उनकी सलाह अस्वीकार कर दी, क्योंकि मुझे अपनी प्राकृतिक चिकित्सा पर पूर्ण विश्वास था। ईश्वर की दया से मेरा पैर मात्र 1 माह में पूरी तरह ठीक हो गया।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 23)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह जो मकान वाली बुडिया ने आप की पत्नी को दुःख पौह्न्चआया उस की कीमत वोह जानती ही नहीं थी ,दुनीआं में ऐसे ऐसे लोग भी होते हैं . आप की ममी का पड़ कर बहुत अफ़सोस हुआ किओंकि मैंने भी यहाँ एक करीबी रिश्तेदार और उन की बहु ,दोनों को इस बीमारी से घुट घुट कर मरते हुए देखा है , इतनी तकलीफदेह बीमारी कोई है ही नहीं ,लेकिन किया कीया जा सकता है . जो आप के चोट लगी ,आप भी मेरे जैसे ही हैं ,बस अपनी कोशिश से ही जिंदा हूँ वर्ना कब का या तो यह दुनीआं छोड़ जाता या बिस्तरे में पड़ जाता . जितनी मैं ऐक्सर्साइज़ करता हूँ ,अगर यह बीमारी न होती तो इस उम्र में भी मैं २१ वर्ष का मेहसूस करता ,लेकिन इस में निऊरोन में गड़बड़ी हो जाती है जो रिवर्स नहीं होती .फिर भी मेरा निऊरो सर्जन एक साल बाद मुझे बुलाता है और हंस पड़ता है कि यह तुमारी विल पावर ही है जो अभी तक इतने बैड नहीं हुए .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाईसाहब ! आपकी जिजीविषा (जीवित रहने की इच्छा) ही है जो आपको इस हालत में भी न केवल जीवित बल्कि सक्रिय भी रखे हुए है। आप सभी के लिए एक प्रेरक उदाहरण हैं।

  • प्रीति दक्ष

    jeevan ke sanmaran hamesha kabhi ghum kabhi khushi dete hain par insaan un paristithiyon ko kaise saadhta hai wo mahatvpurn hai .. aappe sansmaran padh kar ek urja milti hai zindagi jeene ke liye..

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद !

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आज के प्रकरण की सभी घटनाएँ महत्वपूर्ण है। आपकी बूढी मकान मालकिन जैसी एक महिला हमारे पड़ोस में भी रहती थी। उनका झगड़ा अपनी बहु से रहता था तो अलीगढ की रहने वाली है। दोनों ही खूब चिल्ला चिल्ला कर बोलते थे। ताईजी तो २४ से ४८ घंटे तक लगातार बोलती रहती थी। लेकिन उनका मन बहुत अच्छा था और मुझसे स्नेह करती थी। यह वस्तिकता है कि यदि आस पास कहीं शोर हो तो मानशिक क्लेश होता है। आपकी मम्मीजी का हाल व समाचार पढ़कर दुःख हुआ। हमारे एक आर्य विद्वान मित्र श्री अनूप सिंह जी को कमर में कैंसर हुआ था। मैंने उनको घुट घुट कर मरते देखा है। उन्होंने ही मेरा स्वामी अग्निवेश जी और अनेक विद्वानो एवं नेताओं से परिचय कराया था। अब वो इस दुनिया में नहीं है। मृत्यु से कई दिन पहले वह पानी निगलने में भी कठिनाई अनुभव करते थे। रोगी को बहुत दुःख होता है जो घरवालों से देखा नहीं जाता। आपके पैर की चोट व उसके उपचार के बारे में पढ़कर व आपकी प्राकृतिक चिकित्सा में दृढ़ आस्था के एक बार पुनः दर्शन हुवे। रोग की चिकत्सा करते शामे चिकित्सा के प्रति दृढ़ आस्था का होना भी जरुरी होता है. हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर ! सुख दुख जीवन के अंग हैं। ये समय समय पर आकर हमारी परीक्षा लेते हैं। मुझे तो कठिनाइयों से जूझने में आनंद आता है।

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