सामाजिक

लुप्त होते साझे चूल्हे

भारतीय सभ्यता और संस्कृति की नायाब पहचान ‘संयुक्त परिवार’,जिसमें बुजुर्गों की छत्र- छाया  होती थी और उस छत्रछाया  के अंदर पनपता था हमारा संस्कार,हमारी पहचान | पर आधुनिकता व प्रगतिशीलता की अंधी दौड़ में हमसे यह स्तम्भ छिनता जा रहा है और हम नवीनीकरण और आधुनिकीकरण की मजबूत डोर में जकड़ते जा रहे है | हमसे हमारे सुख -चैन के बराबर के सहयोगी कहीं सुदूर अपनी मर्जी की दुनिया में सिमटते जा रहे हैं | पहले जब साझे चूल्हे थे तो सुख-दुख भी साझा था , जहां जीवन के हर सुख-दुख बड़े आसानी से कट जाते थे | हर दिन एक उत्सव की तरह गुजरता था , नीरसता का कहीं कोई जगह नहीं था | आज तो हर दूसरा व्यक्ति अपनी एकांतता से जूझ रहा है ,और इसका निदान डॉक्टर ,मनोचिकित्सक और ढोंगी बाबाओं से पूछता है और बदले में अपने अकाउंट से मोटी  रकम भी अदा करता है पर समस्या ज्यों की त्यों पड़ी हुई है | रोजी -रोटी की तलाश में परिवार तब भी बंटता था पर दिलों में प्यार नहीं बंटता था | घर के एक बड़े सदस्य जिनके जिम्मे परिवार की सारी ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती थी जिसे वो बड़े ही गर्व से निभाते थे और हमेशा यह कोशिश करते थे कि परिवार के हर सदस्य के साथ उचित न्याय हो | तब बुजुर्ग अकेलेपन के शिकार नहीं होते थे,उनका होना परिवार में गौरव कि बात होती थी ,घर का हर सदस्य उन्हें श्रद्धा और श्रेष्ठता का मान देता था जिससे की उनकी आँखों में अंत तक एक स्वाभिमान की चमक बरकरार रहती थी | घर के हर छोटे-बड़े फैसले बड़े करते थे और परिवार का हर सदस्य हंसी-खुशी उसपर अपना मुहर लगाता था | वहीं आज हालत बिल्कुल जुदा है ,बड़े से परामर्श तो दूर की बात कोई उन्हें किसी बात की ,किसी फैसले की जानकारी देना भी उचित नहीं समझते जिसका नतीजा यह होता है कि उनमें कुंठा,अवसाद आदि बीमारियाँ घर कर जाती हैं और वो नियत समय से पहले ही पलायन कर जाते हैं | आज तो हर घर में एक अजीब तरह की अशांति फैली है,रिश्तों में छीना-झपटी मची है हर व्यक्ति खुद को बड़ा व धनवान बनाने के होड में लगा है | अपनों की स्पर्श को तरसता आज का मानव खुद से ही अंजान है, फिर भी उसे इस बात का तनिक भी अफसोस नहीं है | इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज वह पहले की अपेक्षा अधिक धन अर्जित कर रहा है ,पर उस धन का  आनंद वह नहीं ले पा रहा है | वह दो वक्त सही तरीके से  अपने परिवार -बच्चों के साथ बैठकर भोजन  भी नहीं कर पा रहा है फिर भी वह अंधाधुंध मशीनी युग का शिकार होता चला जा रहा है | आज हमारे पास दुनियां के तमाम सुख-सुविधाएं हैं ,पर हम भीतर से बिल्कुल खोखले रह गए हैं ,दुखों का एक हल्का सा झटका भी सहन नहीं कर पा रहें हैं | रिश्तों में खोखलापन,रिश्तों में संवादहीनता आज हर घर की कहानी बन गई है ,जिसका नतीजा यह हो रहा है कि तलाक का ग्राफ ,घर टूटने का ग्राफ,आत्महत्या ये सारी चीजें कैंसर की तरह से निरंतर बढ़ते चले जा रहे हैं | अगर हम जल्द ही इस समस्या का निदान नहीं निकालेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब हम अपने अमूल्य धरोहर को हमेशा-हमेशा के लिए खो देंगे | काश,एक दिन ऐसा आता कि हम लौट चलते अपनी उस जमीनी ज़िंदगी पर जहां मिट्टी की सोंधी खुशबू, साझे चूल्हे के रोटी की महक ,परिवार के सुख-दुख की अनुभूति ,उमंग,प्यार,मनुहार,रूठने-मनाने की सहज अनुभूति बरकरार है |

— संगीता सिंह ‘भावना’
सह-संपादिका —”करुणावती साहित्य धारा” त्रैमासिक
 वाराणसी , मो न. 9415810055

संगीता सिंह 'भावना'

संगीता सिंह 'भावना' सह-संपादक 'करुणावती साहित्य धरा' पत्रिका अन्य समाचार पत्र- पत्रिकाओं में कविता,लेख कहानी आदि प्रकाशित