गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल- छोड़ दिया

अपना होकर भी जब उसने साथ निभाना छोड़ दिया.
मेरे गीतों-ग़ज़लों ने भी उसको गाना छोड़ दिया.

साक़ी ने मै देने में जब मुझसे बेईमानी की,
साक़ी तो साक़ी है मैंने वो मैख़ाना छोड़ दिया.

मैं न हुनर सिख पाया अब तक दोहरा जीवन जीने का,
दिल न मिला जिससे भी उससे हाथ मिलाना छोड़ दिया.

जिन रिश्तों में थोड़ी सी भी कड़ुआहट महसूस हुई,
मैंने उन रिश्तों के दर पर आना-जाना छोड़ दिया.

दिल से किसी ने जो भी दिया वो माना ख़जाने से बढ़कर,
अहसानों के साथ दिया तो मैंने ख़जाना छोड़ दिया.

सारा ज़माना क्या सोचेगा-इसकी कुछ परवाह न की,
मैंने अपना दोस्त न छोड़ा सारा ज़माना छोड़ दिया.

डॉ. कमलेश द्विवेदी
मो.09415474674

One thought on “ग़ज़ल- छोड़ दिया

  • मैं न हुनर सिख पाया अब तक दोहरा जीवन जीने का,
    दिल न मिला जिससे भी उससे हाथ मिलाना छोड़ दिया.

    जिन रिश्तों में थोड़ी सी भी कड़ुआहट महसूस हुई,
    मैंने उन रिश्तों के दर पर आना-जाना छोड़ दिया.

    बहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल ,उम्दा पंक्तियाँ ..

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