बेमेल से रिश्ते
अंजान चेहरो में
ख्वाब ढूँढते हैं
हकीकत से दूर
कुछ रिश्ते
मिलने को तरसते हैं
पड़े किनारे पर चाह लिए
कुछ रिश्ते बेमेल से लगते हैं
दो किनारे हैं
न जाने किसके सहारे हैं
सामने है.. और छू भी ना पाए
ये कैसे किनारे है
वृक्ष तू
छाया मैं
अक्स तू
काया मैं
है आसमां और धरती भी
बूँद को तरसती क्यों
मिलते हैं
और मिल भी ना पाते
कुछ रिश्ते
बेमेल से रह जाते
एक रात है
कुछ बातें भी
लहरों को खींचती
मुलाकातें भी
अधूरे पड़े हैं
चाँद भी
कोशिशें बार – बार करती
मिलने को तरसती
जाने कैसी उलझनों में फँसी
कुछ रिश्ते
बेमेल से लगते हैं ।
— प्रशांत कुमार पार्थ