कहानी

किसी रोते हुए बच्चे को…

“देख उतना भी डिफिकल्ट नहीं है जितना तू सोच और बना रही है… बस थोङा सा समय निकालना पङेगा यार, घर-गृहस्थी, पति-बच्चे कहीं नही जा रहे… कुछ अपने लिए भी तो सोच, थोङी सी समाजसेवा बैठे बिठाए पुण्य ही नहीं ढेर सारी शोहरत भी देती है , बस एक दो बार मीडिया को तू नजर आ जाएगी तो शहर की एक जानी पहचानी हस्ती बनते देर नहीं लगेगी तुझे…मुझपर यकीन कर…!” सहेली वंदना जो खुद एक समाजसेविका थी, मुझे इसके गुर बता रही थी

पर मैं हर बार उसके साम दाम दंड भेद के जाल में फंसते फंसते रह जाती, हालांकि उसके साथ एक दो बार मैं गई अवश्य थी, पर वो बनावटी चोंचले, सौ रुपयों की चीज देते हुए “सौ क्लिक्स“, मुझे कभी भाए नहीं, आज भी ऐसे ही कार्यक्रम में ले गई थी मुझे, जहां लिपे-पुते चेहरों की खोखली सहानभूतियों और आगे आने की ललक में मची मारा मारी के बीच जब मेरा दम घुटने लगा, तो मैं वहां से निकलकर बाहर खङी हो गई, जहां पीछे से आई वंदना मेरी घुटन को घर जाने की हङबङाहट समझकर मुझे समझा रही थी.

जैसे तैसे उससे विदा लेकर घर पहुंची तो एक पुरानी परिचिता इंतजार करती मिली, जो पहले मेरे घर सहायिका हुआ करती थी, असमय की बुजुर्गियत और बीमारी अब उन्हे कामकाज करने की इजाजत तो नही देती पर वो गैरतमंद स्त्री लोगों के घर पर्व-त्योहारों पर पैर रंग कर होने वाली आमदनी से अपना गुजर बसर करती है. मैने पूछा- “तबियत तो ठीक है ना अब आपकी.”

बोली— “ना दीदी, पर दुखियों के रोग बिछावन सटने से नहीं, कमाने खाने से जाते है. पैर रंगवा कर दो सौ रुपये पकङाए तो पलभर वो ठिठकी पैसे पकङते हुए, उसके अंदर की ग्लानि चेहरे को सर्द बना गई. ‘अरे ठीक होने पर वापस कर देना’ कहने पर वो थोङी सहज हुई.

अगले दिन फिर वंदना का फोन आया- “क्या सोचा तूने प्रिया, देख इस संडे को शहर के छोर पर जो दलित बस्ती है ना, वहां बिस्किट, दवाईयां और कंबल बांटने का प्रोग्राम है, एक-दो घंटे लगेंगे, और सुन सभी अखबारों के प्रतिनिधि आ रहे है. फ्रंट पेज पर अपनी तस्वीर की बात है. आनाकानी मत करना. इस तरह के कार्यक्रमों के अवसर के लिए लोग मुंह बाए रहते हैं, तुझे इसलिए बताया कि तू मेरी इतनी अच्छी दोस्त है. अच्छा बहुत अरेंजमेंट्स बांकी है. तू रेडी रहना, पिक कर लूंगी.” एहसान जताती हुए मेरी सहेली ने मेरा जवाब सुनने से पहले फोन काट दिया.

क्या कहुं, कैसे कहुं उससे कि मुझे उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनना, जिसकी प्राथमिकता भलाई नहीं अपने आप का प्रदर्शन है, भलाई एक सुनियोजित प्रक्रिया नहीं है. वो तो तत्क्षण की बात है जिसके मौके बनाने नही पङते. ईश्वर ये मौके देता है बस हमें उस अवसर को पहचानना चाहिए और स्वयं को ऊपरवाले का दूत समझ धन्यवाद देना चाहिए. पर यहां तो मकसद दीन दुखियों की पीङा, उनकी मलिनता पर अपने आपको चमकाना है, दुसरों के दुख महसूस करने उनके बारे में सोचने, उन्हे न्याय दिलाने जैसी बातों का ढोंग करने वाली ये औरतें अपनों के साथ क्या न्याय कर पाती है. इसका भी लेखा जोखा नहीं होता उनके पास. बस दिशाहीनों की एक भीङ जमा करके अपने अमूल्य जीवन की सार्थकता ढूंढने का प्रयत्न करना ही इनका मकसद बन जाता है. दान-पुण्य की बातें करने वाली ये नारियां उसका मतलब समझ पाती तब तो..कहते है दाएं हाथ से दो तो बाईं को भी ना पता चले..ढोल-नगाङे पीट कर दान करना किस श्रेणी में आता है सर्वथा अनभिज्ञ हुं.

खैर मन मार कर दोस्ती की गरिमा तो निभानी ही थी, तय समय पर रविवार को वंदना आ गई. दलित बस्ती की रोड कच्ची थी सो बाहर ही गाङियां रोक दी गईं, कुछ पुरूष कार्यकर्ता सामान उतारने लगे. तभी वहां से बच्चों की एक टोली गुजरी. कुपोषित से दिखते, नग्न-अर्धनग्न उन बच्चों की निगाह बिस्किट के कार्टन पर जा टिकी. वो वंदना की सक्रियता देख उससे जाकर लटकने लगे. वो उन्हे लगातार झिङकती जा रही थी. तो मैं बोल पङी— “अरे इन्ही की खातिर है ना, दे भी दे.”

इस पर वो आंख तरेर कर बोली— “और आयोजन का क्या. ना न्यूज बनेगी, ना कवरेज होगी. तो आने का क्या फायदा?”

मैं तो हतप्रभ रह गई. बच्चे मुझे अपना मसीहा मान मुझसे से लटकने लगे. मन में ढृढ निश्चय कर मैं उनको लिये एक ग्रोसरी स्टोर की ओर बढ गई. वंदना पीछे से चिल्लाती रही. हर बच्चे की हाथ में बिस्किट की पैकेट थमा कर बदले में खजाना पाने की खुशी सी मुस्कान मन को जितने सुकून और संतोष से मन भर गई, उतना अपने लिए मन भर शापिंग करने के बाद भी कभी हासिल नहीं कर पाई थी. अंतस तक अह्लादित हो गई मैं तो. बगल की दुकान पर रेडियो पे आते गाने ने तो तृप्ति के भावों को लब पर भी बिखेर दिया. गाना कुछ यूं था—

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए….

 

मीनू झा

शैक्षिक योग्यता स्नातक (अंग्रेजी) स्नातकोत्तर (एम.बी.ए) (वित्त व मार्केटिंग में विशेषज्ञता) लेखन-रूझान कई भाषण व वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में विजेता-उपविजेता तीन सालों से ब्लॉगिंग के क्षेत्र में सक्रिय संपर्क निवेदित कुमार झा,एम एच-309,सी आई एस एफ कॉलोनी,पानीपत रिफाईनरी के निकट,पानीपत,हरियाणा फोन नंबर 9034163857/9570473537

One thought on “किसी रोते हुए बच्चे को…

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत प्रेरक कहानी !

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