संस्मरण

मेरी कहानी – 51

लछू के ढाबे में बैठे एक लड़के ने बताया था कि किराए का कमरा हमें चाना बिल्डिंग में मिल सकता है। कुछ दिन बाद हम चाना बिल्डिंग की ओर चल दिए। वैसे तो यह बिल्डिंग हम बाहर से देखते ही रहते थे क्योंकि यह बिल्डिंग जीटी रोड पर शूगर मिल के सामने ही थी लेकिन नज़दीक जा कर कभी नहीं देखी थी। चाना बिल्डिंग के ऊपर आठ दस चुबारे थे और नीचे के सभी कमरों में कोई ना कोई काम चल रहा था। एक बड़े कमरे में बिजली के स्वीच और प्लग बन रहे थे। वहां एक सरदार जी बहुत ही साफ़ स्मार्ट कपड़ों में जाली से बंधी हुई दाढ़ी में एक कुर्सी पर बैठे थे। छोटे छोटे बच्चे कुछ मशीनों पर काम कर रहे थे। हम ने सरदार जी को सत सिरी अकाल बोला और अपने आने का मकसद बताया कि हमें एक कमरा चाहिए था। सरदार जी ने बताया कि अभी तो सभी कमरे किराए पर थे लेकिन कुछ हफ्ते बाद एक कमरा खाली होने वाला था। जब हम चलने लगे तो सरदार जी कहने लगे कि रेलवे रोड पर उनके एक दोस्त का मकान है, वहां हमें पूछ लेना चाहिए।

उसी वक्त हम अपने अपने साइकलों पर सवार हो गए और रेलवे रोड की तरफ चल दिए। दस मिनट में हम वहां पहुंच गए और यह मकान हमें रेलवे रोड पर पनेसर बिल्डिंग के नज़दीक ही मिल गिया। यहां से रेलवे स्टेशन दो तीन मिनट की दूरी पर ही है। मकान मालक भी उस वक्त वहीँ था। उस ने एक कमरा दिखाया। कमरा तो इतना अच्छा नहीं था बल्कि सभी कमरे ऐसे ही थे। दीवारों पर बाहर और अंदर कोई पलस्तर नहीं था। किराया बाराह रूपए महीना था और इस में बिजली का बिल भी शामिल था। पांच रूपए हम ने डिपॉज़िट दिए और तीन दिन बाद रविवार को आने का कह दिया। इस दफा बहादर हमारे साथ नहीं था। मैं जीत और भजन ने ही आना था। रविवार को हम सारा सामान दो फेरों में ले आये। पहले हम सब्ज़ी की दूकान पर गए, वहां से मटर खरीदे। कमरे में आ कर हम ने सब्ज़ी बनाई और पराठे बनाये। घी की पीपीआं घर से सभी ले आये थे। इस बिल्डिंग में और भी लोग थे लेकिन हमारी बात चीत सिर्फ दो लोगों से ही हो पाई, एक तो था एक पॉलिटैक्निक कॉलेज का विद्यार्थी करनैल सिंह और दूसरा था एक बज़ुर्ग जिस का नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन इस को फौजी साहब बोलते थे। दाढ़ी को कलर करते थे और ढीली सी पगड़ी बांधते थे। यह बहुत दिलचस्प इंसान थे, बात बात पे ऊंची ऊंची हँसते थे।

स्कूल हम जाने लगे और खूब मेहनत करने लगे। फौजी साहब बताया करते थे कि कभी वोह बबर अकाली लहर में शामल थे जो अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते थे। रात को सफर किया करते थे और दिन को सोया करते थे। अंग्रेज़ों के चमचों को मारना ही उन का काम होता था। हमारे गाँव के पुराने लोगों को वोह बहुत अच्छी तरह जानते थे। फौजी साहब कई दफा भावुक हो जाया करते थे कि इस बबर अकाली लहर में कई गद्दार भी पैदा हो गए थे जिन्होंने लालच वश अपने कई साथिओं को पकड़वा दिया था। एक दफा फौजी साहब ने एक कहानी सुनाई कि पार्टी को पैसे की बहुत जरुरत होती थी और इस के लिए वोह बड़े बड़े सेठों को लूटते थे। एक रात को जब उन्होंने किसी सेठ के घर डाका डाला तो लूट के दौरान जब सब लोग लूट में मगन थे तो एक साथी ने एक कमरे में घुस कर अंदर बैठी सेठ की बहु की इज़त लूट ली। डाका डाल कर जब सब जाने लगे तो पार्टी का सरदार सेठ की बहू को बोला, ” बहन, मुआफ करना हमें पैसों की सख्त जरुरत थी लेकिन हम आप को कुछ नहीं कहेंगे, आप घबराइये नहीं, हम से डरने की कोई जरुरत नहीं ” सेठ की बहू बोली, ” अगर आप देश के लिए बहनों की इज्जत लूटते हैं तो यह बहन आप सब के लिए हाजिर है, लो लूट लो मिल कर बहन की इज्जत “. जब सरदार को सारी बात का पता चला कि क्या हुआ था तो सरदार ने उसी वक्त उस आदमी को गोली मार दी।

इस कमरे में हम रहना नहीं चाहते थे क्योंकि एक तो चारपाईओं में खटमल बहुत होते थे और हम पम्प में फलिट डाल कर स्प्रे करते ही रहते थे और फिर भी वोह मरते नहीं थे और रात को हमें काटते रहते थे और स्प्रे की स्मैल भी बहुत आती रहती थी, दूसरे वैसे भी यहां गंद ही गंद था। चाना बिल्डिंग में हम जाते रहते थे और एक दिन हमें खुशखबरी मिल गई कि एक कमरे में जो पटवारी रहता था वोह जा रहा था । हम ने सरदार जी से बात कर ली, किराया था १४ रूपए महीना। कुछ ही दिनों बाद रेलवे रोड के कमरे का हिसाब करके हम चाना बिल्डिंग में आ गए। इस दफा बहादर भी हमारे साथ आ गिया। जिस कमरे में पटवारी रहता था, पता चला की उस को दमे शिकायत थी और खांसता रहता था। कमरे में उस ने जगह जगह थूका हुआ था। देखते ही हमें नफरत सी हुई और चाना बिल्डिंग के एक बहुत बड़े आँगन में बने हुए कुएं से हम ने पानी की बाल्टीआं लानी शुरू कर दी और ईंटों से कमरे के फर्श को रगड़ना शुरू कर दिया। दीवारों को भी खूब रगड़ा और एक पेंट का डिब्बा ला कर पेंट कर दिया और सरदार को दिखाया। सरदार खुश हो गिया और उस ने पेंट के पैसे देने मान लिए। चारों दोस्तों ने फर्श पर ही अपने बिस्तरे लगा लिए।

इस चाना बिल्डिंग की यादें बहुत हैं, यों तो एक साल पहले हम बहादर के मकान में भी रहे थे लेकिन जितने मज़े हम ने इस चाना बिल्डिंग में किये वोह जिंदगी का एक ऐसा हिस्सा है जिस को एक्सप्लेन नहीं किया जा सकता। इस कमरे जो ऊपर दूसरी मंजिल पर था के साथ साथ और भी कमरे थे और तकरीबन सारे विद्यार्थी थे सिवाए एक पटवारी के और यह पटवारी भी एक रंगीला ही आदमी था। यह अपनी रोटी एक अंगीठी पर बनाया करता था। इस अंगीठी के बारे में मुझे पता नहीं कि अब भी यह कहीं इस्तेमाल होती है या नहीं क्योंकि अब तो गैस ही इस्तेमाल किया जाता है। यह अंगीठी भी उस वक्त की एक नई इजाद थी और इस को बूरे वाली अंगीठी कहते थे। इस अंगीठी की ख़ास बात यह होती थी कि यह चार चार पांच पांच दिन बुझती नहीं थी. इस में ऊपर और साइड पर दो ढक्कन होते थे जो खाना बनाने के बाद बंद कर दिए जाते थे और जब दुसरे दिन खाना बनाना होता था तो यह ढकन खोल कर उसी वक्त खाना बना सकते थे किओंकि यह जलती रहती थी। चार पांच दिन बाद थोडा सा लकड़ी का बुरादा या बूरा (saw dust) इस में डालना पड़ता था। यह बूरा लकड़ीआं काटने की फैक्ट्री (saw mill )से बहुत सस्ते में मिल जाता था।

यह पटवारी दो रोटीआं बनाया करता था लेकिन यह रोटीआं इतनी मोटी होती थीं कि कमज़क्म तीन रोटिओं का आटा एक रोटी में होता था और जब रोटी बनती थी तो फूल कर फ़ुटबाल जैसी हो जाती थी। बहुत बड़ीआ रोटी होती थी और सब्ज़ी में घी तैरता हुआ होता था। मज़े से खाता और फिर पटवारिओं के दफ्तर की ओर चले जाता। सुबह सुबह वोह अख़बार जरूर पढ़ता जो उर्दू का होता था शायद प्रभात या मिलाप होता था । उस के पढ़ने का भी एक अजीब ढंग होता था। पूरी खबर शायद ही उस ने कभी पढ़ी हो। जब भी पढ़ता, हम उस को देख सुन कर हँसते रहते। वोह पढ़ता ” गोबिंद बल्व पंत किसानों को मिलने के लिए किसी गाँव में गए और उन की गाये भैंसों के साथ चारा खाने लगे, नेहरू जी इजिप्ट के नासर को मिले और नासर ने उन्हें खूब खजूरें खवाईं “. हम पटवारी को देख देख बहुत हँसते। कई दफा तो वोह आधी खबर पढ़ के गाली निकाल देता। जितनी देर हम चाना बिल्डिंग में रहे यह पटवारी चालीस पैंतालीस वर्ष का हो कर भी हमारे साथ दोस्त जैसा रहा।

अब हमारे कपड़ों में भी फर्क आ गिया था। हम बढ़िया से बढ़िया ट्राऊज़र पहनते, हाफ स्लीव शर्ट जिस को बुशर्ट कहते थे, पहनते और बूटों को पालिश और चमका के रखते। क्योँकि हम सभी सिख थे, इस लिए अपनी पगड़ीआं एक ललारी से रंगवाते जो पुराने बस अड्डे के पास रेलवे रोड के नज़दीक होता था, और उस को मावा देने को कह देते जिस से पगड़ी अकड़ जाती और सर पर बहुत अच्छी बंधती जो देखने में खूबसूरत लगती। पगड़ी का एक नया स्टाइल उस समय बहुत प्रसिद्ध था जो बेशक आज बहुत बदल गिया है लेकिन मैं अभी भी वोही पुराना स्टाइल इस्तेमाल करता हूँ। इस चाना बिल्डिंग के पीछे बहुत खुली जगह थी जिस में एक खूही होती थी और एक तरफ बहुत बड़ी भट्टी थी जिस में सरदार जी बिजली के ताज़े बनाये प्लग्गों को पकाते थे जिस से वोह एक दम सख्त और तैयार हो जाते थे। सरदार जी अच्छे कलाकार भी थे और छोटे छोटे बुत्त बनाते रहते और इन को भट्टी में पका लेते। कई दफा वोह स्टाइलिश कप बनाते जो बहुत सुन्दर दिखाई देते। लेकिन यह सरदार जी बोलते ज़्यादा नहीं थे, उन का स्वभाव ही कुछ ऐसा था। यह सरदार जी शायद तीस पैंतीस साल पहले इंग्लैण्ड में हमें बर्मिंघम रोड पर किसी रिश्तेदार के घर मिले थे । देखते ही हम एक दूसरे को पहचान गए। पुरानी बातें हुईं और मैंने उस फैक्ट्री के बारे में पुछा जिस में वोह प्लग्ग बनाया करते थे। सरदार जी हंस पड़े और बोले, ” वोह कुछ नहीं था, उस में घाटा ही पड़ता रहता था, इस लिए बंद करनी पडी “. इस के बाद इस सरदार जी के कभी दर्शन नहीं हुए।

हर सुबह हम अपने रामगढ़िया स्कूल को जाते और बहादर अपने जेजे हाई स्कूल को चले जाता। शूगर मिल की एक साइड जीटी रोड की तरफ थी और दुसरी साइड हदियाबाद रोड पर थी और इसी रोड पर हम स्कूल को जाते थे। शूगर मिल के आगे रेलवे लाइन्ज़ हैं और यहां से रेलवे स्टेशन २०० गज़ पर ही है, इन रेलवे लाइनों पर एक फाटक है, यह फाटक कोई गाड़ी आने के वक्त बंद हो जाता है। इस फाटक को पार करके हमारा स्कूल कोई आधा किलोमीटर ही होगा। इन रेलवे लाइनों और फाटक के बिलकुल नज़दीक मेरी मासी का घर था। यह मासी मेरी माँ के चाचा जी की बेटी थी लेकिन यह मुझे सगी मासी की तरह ही पियार करती थी। कभी कभी मैं इस मासी के घर चले जाता था। मासी का घर रेलवे लाइन से मुश्किल से पंद्रह सोलह फ़ीट दूर ही था और गाडिओं का शोर इतना होता था कि कमरे में बैठ कर बातें करना मुश्किल हो जाता था। अक्सर मैं मासी को पूछता रहता था कि वोह रात को सोते कैसे थे। वोह बोलती, बेटा उन्होंने तो कोई फरक ही नहीं था। एक रात को मैं मासी के घर सोया था लेकिन मुझे सारी रात नींद नहीं आई थी क्योंकि कुछ मिनट बाद ट्रेन आ जाती और ऐसे लगता जैसे घर के भीतर आ गई हो और इस के बाद मैं वहां कभी नहीं सोया था।

एक दिन जब हम स्कूल गए तो कुछ अजीब सा लगा, सभी लड़के मेरी ओर आ रहे थे। मुझे देख कर एक तरफ हो जाते, मैं उन को बुलाता लेकिन वोह एक दो बातें करके एक तरफ को चले जाते। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। एक लड़का मेरी तरफ आया और मुझ से पूछा, ” तू गुरमेल ही हैं?” मैंने कहा, ” यार यह क्या बात हुई, मैं गुरमेल ही हूँ, इस में किया शक है?” फिर उस ने बताया कि उस सुबह रेलवे लाइन पर दो लाशें मिली थीं , एक लड़के की और एक लड़की की और अफवाह यह ही है कि वोह लड़का तू ही था और तेरी शकल उस से मिलती है, इसी लिए सभी यही समझ रहे हैं कि वोह तू ही था । लड़के लड़की ने आपस में रस्सा बाँधा हुआ था और अफवाह यह ही है कि तुम दोनों पियार करते थे। सुन कर मैं सुन्न ही रह गिया। फिर सभी इकठे हो गए और हंसने भी लगे कि तुझ में इतना हौसला हो ही नहीं सकता था। इतनी देर में मैंने अपनी मासी को रिक्शे से उतरते हुए देखा जो घबराई दिख रही थी। मैं उसी वक्त सड़क पर खड़े रिक्शे की ओर गिया और मासी को सत सिरी अकाल बोला। मासी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, फिर मेरे मुंह पर हाथ फेरा और बोली, ” गुरमेल बेटा ! तू ठीक ठाक है ?” . मैंने तरुंत कहा, ” मासी ! मुझे सब पता चल गिया है, वोह कोई और होगा, भला मैं ऐसे क्यों करूँगा “. मासी ने मुझे अपनी बाहों में ले लिया और बोली, “बेटा, मैं तो राणी पुर को जाने वाली थी “. मेरा क्लास में जाने का वक्त हो गिया था। मैं क्लास को जाने को तैयार हो गिया और मासी भी वापस मुड़ने लगी, उस के चेहरे पर एक संतोष की झलक दिखाई दे रही थी।

चलता …

4 thoughts on “मेरी कहानी – 51

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    अतीव सुंदर रोचक सृजन के लिए सादर आभार एवम् नमन

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक कथा, भाई साहब ! दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज के लेख में वर्णित सभी घटनाएँ रोचक एवं प्रभावशाली हैं। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहुत बहुत धन्यवाद ,मनमोहन जी.

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