कविता

जीवनाधार

फूल नर्म, नाज़ुक और सुगन्धित होते हैं
उनमें काँटों-सी बेरुख़ी, कुरूपता और अकड़न नहीं होती
जिस तरह छायादार और फलदार वृक्ष
झुक जाते हैं औरों के लिए
उनमें सूखे चीड़-चिनारों जैसी गगन छूती
महत्वकांक्षा नहीं होती।

क्योंकि —
अकड़न, बेरुख़ी और महत्वकांक्षा में,
जीवन का सार हो ही नहीं सकता
जीवन तो निहित है झुकने में
स्वयं विष पीकर
औरों के लिए सर्वस्व लुटाने में
नारी जीवन ही सही मायनों में जीवनाधार है
माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेयसी आदि समस्त रूपों में
सर्वत्र वह झुकती आई है
तभी तो पुरुष ने अपनी मंजिल पाई है
उसने पाया है
बचपन से ही आँचल, दूध और गोद
ममता, प्यार, स्नेह, विश्वास, वात्सल्य आदि

किन्तु सोचो —
यदि नारी भी पुरुष की तरह स्वार्थी हो जाये
या समझौतावादी वृति से निज़ात पा जाये
तो क्या रह पायेगा आज
जिसे कहते हैं पुरुष प्रधान समाज।

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६

One thought on “जीवनाधार

  • शशि शर्मा 'ख़ुशी'

    अति उत्तम रचना,,, नारी को इस कदर गहराई से समझने व मान देने के लिये हार्दिक आभार |

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