गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

ख्वाब में जो साथ मेरे घर गए
जागती आँखों से वो मंजर गए ।

पूजते जो देवियों को रात दिन
जन्म बेटी ने लिया तो डर गए ।

जो मुझे पत्थर बुलाते थे कभी
पूज के अब पत्थरों को तर गए।

राह मुझको जो दिखाते थे कभी
दूर मुझसे वो मेरे रहबर गये

रौंदते थे जो धरा को पांव से
मौत आई ‘धर्म’ वो भी मर गए ।

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • महातम मिश्र

    उत्तम अति उत्तम आदरणीय धर्म पाण्डेय जी, बहुत खूब

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