संस्मरण

मेरी कहानी 63

कोई वक्त था जब बिदेसों में लोग बहुत कम जाया करते थे। मेरे प्राइमरी और मिडल स्कूल के ज़माने में शायद कुछ आदमी ही परदेस गए हुए थे। बिदेस जाने वाले पहले शख्स एक तो थे मेरे पिता जी और एक थे दूसरे मोहल्ले में रहने वाले चरण सिंह जो अफ्रीका गए थे। चार आदमी गए थे सिंघा पुर को और कुछ साल सिंघा पुर काम करके यह इंग्लैण्ड आ गए थे , यह थे सुच्चा सिंह अमर सिंह कर्म सिंह और पियारा सिंह। मेरे पिता जी और चरण सिंह तो शायद छोटी उम्र में ही अफ्रीका गए थे लेकिन सिंघा पुर जाने वाले यह चार लोग शायद १९५४ ५५ में गए थे। इस के बाद एक थे बहादर के चाचा जी और यह भी शायद ५४ ५५ में ही गए थे। यह चारों लोग राणी पुर में हमारे मोहल्ले के ही थे सिर्फ बहादर के चाचा जी कुछ दूर रहते थे । यह चारों लोग जब अभी गाँव से गए नहीं थे तो बहादर के चाचा जी तो गाँव में सब से आमिर थे लेकिन दूसरे चारों के कपडे फ़टे हुए होते थे और सभी के मकान कच्चे होते थे और इन के घर गरीबी से कूट कूट कर भरे हुए थे।

यह चारों सिंह थे और सर पर पगड़ी बांधते थे लेकिन जब यह लोग कुछ साल बाद इंग्लैण्ड से गाँव आये तो यह सब क्लीन शेव थे और बहुत अच्छे गर्म सूट पहने हुए थे। सोने के कड़े और सोने की अंगूठीआं पहनते थे। उस वक्त नाइलोन की कमीज़ें सिर्फ बाहर से ही लोग पहन कर आते थे ,भारत मे नाइलोन होती नहीं थी। इन की नाइलोन की कमीज़ों को देख देख कर हम तरसते रहते थे कि काश हमारे पास भी ऐसी कमीज़ें हों। इस बात से भी हम हैरान होते थे कि यह लोग कुछ साल पहले ही फ़टे कपड़ों में होते थे ,अब यह अचानक गर्म सूट कैसे पहनने लग पड़े। एक बात और भी थी और यह थी उन के बटुओं में बड़े बड़े नोट। सब लोगों पर एक ही प्रभाव होता था कि इंग्लैण्ड में पैसे बहुत थे ,वहां शीशे की सड़कें थीं और बागों से फ्रूट तोड़ कर ही बहुत पैसे मिल जाते थे। एक दो आदमी नज़दीक गाँव जगपाल पर से भी गए हुए थे।

एक तो इन लोगों के कपडे बहुत अच्छे होते थे और दूसरे इन का रंग भी कुछ बदला हुआ लगता था और लोग जल्दी ही इन्हें पहचान जाते थे कि यह आदमी बाहर से आया हुआ था लेकिन एक ख़ास बात यह थी कि यह लोग गाँव में आ करके अंग्रेजी के लफ़ज़ बोला करते थे और हम बहुत हंसा करते थे क्योंकि जो अंग्रेजी यह बोलते थे बहुत अजीब होती थी। अक्सर एक लफ़ज़ यह बहुत बोलते थे और वोह था ऑलरैट ( alright ). और भी बहुत लफ़ज़ थे जिन के कारण हम हंस पड़ते थे और जब भी कोई नया शख्स इंग्लैण्ड से आता तो हम कहते ,” लो एक और ऑलरैट आ गिया ).

जब मेरे पिता जी हमेशा के लिए अफ्रीका छोड़ आये थे तो उन का इरादा अब गाँव में रहने का ही था लेकिन जब मैं आर्ट्स कालज में दाखल हो गिया तो कुछ ही महीनों बाद पिता जी का इरादा इंग्लैण्ड जाने का हो गिया। क्योंकि उस वक्त पिता जी के पास ईसट अफ्रीकन (बाद में कैनिया ) ब्रिटिश पासपोर्ट था और उस समय ब्रिटिश पासपोर्ट का मतलब यह ही होता था कि वोह सीधे जब भी चाहे इंग्लैण्ड जा सकता थे ,किसी वीज़े की जरुरत नहीं होती थी क्योंकि कैनिया अभी आज़ाद नहीं हुआ था ,भारत की तरह कैनिया पे भी अंग्रेज़ों का ही राज था।

जब मेरे पिता जी भी इंग्लैण्ड आ गए तो वोह बहुत अपसेट थे और जब भी उन का खत आता तो यह ही लिखा होता था कि इंग्लैण्ड में ठंड बहुत है। दरअसल पिता जी ने अफ्रीका में बहुत अच्छे दिन गुज़ारे थे क्योंकि वहां सब इंडियन लोगो ने अपने अपने घरों में अफ्रीकन नौकर रखे हुए थे जिन को बोई कहते थे और खुद बहुत ऐश की ज़िंदगी गुज़ारते थे। पांच दिन काम करते और वीकैंड पर पार्टीआं करते , जंगलों में सफारी की सैर करते और मैहलाएं मज़े करतीं, इकठी हो कर टाऊन की सैर करतीं क्योंकि घर का सारा काम बोई ही करते थे। अफ्रीकन ज़्यादा लोग अनपढ़ और गरीब होते थे ,इस लिए बहुत लोगों ने तो अफ्रीकन औरतें भी रखी हुई थीं और उन के बच्चे भी होते थे.

इतनी ऐश भरी ज़िंदगी बिताने के बाद यह कुदरती ही था कि पिता जी को अब बहुत सख्त काम करना पड़ रहा था और सब से तकलीफ वाली बात यह थी कि खुद ही शॉपिंग ,खुद ही खाना बना कर काम पर जाना और कपडे भी खुद ही धोने पड़ते , इस में और भी बुरी बात थी कि नहाने के लिए हफ्ते में एक दफा ही सैंट्रल बाथ्स जो टाऊन की कौंसल ने बनाये हुए थे ,में जा कर नहाना, घरों में बाथ बहुत कम होते थे , गोरे लोगों के भी बहुत घर बाथ रूम के बगैर ही होते थे और वोह भी सैंट्रल बाथ में जा कर नहाते या स्वीमिंग करते थे । वहां बहुत से बाथ बने हुए होते थे और दो शिलिंग दे कर एक तौलिआ और एक छोटी सी साबुन की टिकिआ मिलती थी। सब लोग कुर्सिओं पर बैठे रहते थे और जब कोई बाथ खाली होता तो घंटी वज जाती और जिस की वारी होती वोह उठ कर बाथ में घुस जाता। रोज़ नहाने वाले लोगों को अब नहाने के लिए एक ही दिन मिलता था ,और इस बात पर पिता जी बहुत दुखी थे। हर चिठ्ठी में पिता जी यह ही लिखते थे कि वोह कुछ साल काम करके इंडिया आ जाएंगे और फिर कभी वापस इंग्लैण्ड को नहीं आएंगे। हमारे मोहल्ले के चार लोग और मेरे पिता जी तो एक ही टाऊन में रहते थे लेकिन बहादर के चाचा जी बीस किलोमीटर दूर रहते थे। एक बात थी कि उस समय लोगों में मुहब्ब्त बहुत होती थी। किसी रविवार को बहादर के चाचा जी बस पकड़ कर अपने सभी गाँव वासिओं को मिलने आ जाते ,कभी यह लोग बहादर के चाचा जी को मिलने चले जाते। इन लोगों का लुतफ एक बात में ही होता था और वोह था पब्ब में जा कर बीअर पीना और फिर आते वक्त विस्की की बोतल ले आना। अपने मेहमान के लिए मीट बना कर रखा होता था और घर आ कर छोटी छोटी ग्लासिओं में विस्की पीना और मीट खाना बातें करना । इस से उन की हफ्ते भर की थकावट दूर हो जाती और अपने अपने घरों के दुःख सुख सांझे कर लेते।

जब हम फगवाढ़े मैट्रिक में दाखल हो गए थे तो एक लड़का जोगिन्दर जो पास के गाँव जगपाल पुर का रहने वाला था , उस को उस के पिता जी अपने साथ इंग्लैण्ड ले गए। हम में से यह पहला लड़का था जो इंग्लैण्ड गिया था और यह भी बता दूँ कि यह लड़का मुझे आज से १५ साल पहले मेरे छोटे भैया की सर्जरी में मिला था और अफ़सोस इस बात का भी है कि मैंने इसे पैहचाना नहीं था क्योंकि अब इस ने पगड़ी बाँधी हुई थी और लम्बी दाहड़ी थी। मेरे भैया ने मुझे बताया कि ,” भैया ! यह जोगिन्दर सिंह है और आप के साथ पड़ता था और अब यहां कुछ देर के लिए आया हुआ है “. मैंने दिमाग पर बहुत जोर दिया कि यह जोगिन्दर सिंह कौन हो सकता था लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया। इस के दो तीन महीने बाद जब मैं यहां था तो अच्चानक मुझे जोगिन्दर सिंह याद आ गिया और मुझे इस बात का बहुत अफ़सोस हुआ कि हम तो बहुत दोसत हुआ करते थे और मैं उन्हें पेहचान नहीं सका था। जब हम मैट्रिक में पड़ते थे तो कुछ और लड़के इंग्लैण्ड चले गए थे जिन में एक और जोगिन्दर सिंह था जो मुझे वैस्ट पार्क में मुझे १५ साल पहले अच्चानक ही मिला था। जब कालज में थे तो और लड़के चले गए ,कोई इंग्लैण्ड और कोई अमरीका कैनेडा।

१९६० से पहले जितने भी लोग इंग्लैण्ड गए उन में ज़्यादा तर अनपढ़ किसान लोग ही होते थे ,पड़े लिखे बहुत कम थे लेकिन १९६० के बाद स्कूलों के लड़के जाने लगे थे। एजेंटों की दुकानों पर लोगों को जाते हुए हम देखते रहते थे लेकिन हमें इस में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। १९६१ के आखिर में इंग्लैण्ड जाने की बातें आम होने लग गई थीं। यह बातें आम होने लगी थी कि इंग्लैण्ड में एक नया कानून बनने जा रहा था ,जिस के बाद इंग्लैण्ड के दरवाज़े बंद कर दिए जाएंगे और कोई जा नहीं जा सकेगा। किसी को कोई पता नहीं था कि यह कानून क्या होगा , इस की धाराएं किया होंगी ,कौन जा सकेगा कौन नहीं ,बस एक ही बात हो रहीं थी कि इंग्लैण्ड बंद हो जाएगा।

जब हमारा टूर खत्म हो गिया था तो मैं और बहादर रोज़ाना कालज जाने लगे थे। एक दिन जब हम कालज आये तो बहादर ने अपने कोट की जेब से एक पेपर निकाला और मुझे दिखाने के लिए मेरी ओर बढ़ाया और साथ ही बोला ,” गुरमेल मैंने भी इंग्लैण्ड जाने की तैयारी कर ली है और यह राहदारी (स्पॉन्सरशिप ) मेरे चाचा जी ने मुझे वहां बुलाने के लिए भेजी है “. मैंने सारा सपॉन्सर्शिप फ़ार्म पड़ा जिस पर बहादर और उस के चाचा जी का नाम लिखा हुआ था और नीचे लाल रंग के एक बड़े स्टार जैसा सट्टिक्कर लगा हुआ था जिस पर एक मोहर लगी हुई थी और किसी अँगरेज़ वकील के साइन किये हुए थे। मैंने पड़ कर फ़ार्म बहादर को दे दिया और उस को वधाई दी लेकिन भीतर से मैं हिल सा गिया। मुझे ऐसा लगा कि मैं दुनिआ में अकेला हो गिया हूँ। एक के बाद एक सभी दोस्त बिछुड़ गए थे और बहादर अब आख़री दोस्त भी मुझ से बिछुड़ जाएगा। बाहर से तो मैं बहादर के साथ पैहले जैसा था लेकिन अंदर से एक खलबली सी मची हुई थी और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। मेरे पिता जी भी इंग्लैण्ड ही रहते थे लेकिन मेरे अंदर इतना हौसला नहीं था कि मैं उन को मेरे लिए स्पॉन्सरशिप भेजने को लिखूं।

बहुत पहले मैं लिख चुक्का हूँ कि बचपन में पिता जी मुझे पीटा करते थे और मुझ में एक ऐसा डर सा पैदा हो गिया था कि पिता जी के साथ मेरी नज़दीकी कभी बन नहीं सकी थी ,जब मैं जवान भी हो गिया तो भी वोह बात नहीं बन सकी थी। बस मैं बेटा था और वोह मेरे पिता जी थे। दो तीन साल इंग्लैण्ड में ही हम नज़दीक हो सके और हम रोज़ एक चारपाई पर ही सोते थे क्योंकि जगह की तंगी थी। जो मुहबत एक बेटे और बाप में होनी चाहिए वोह कभी नहीं बन पाई। इसी लिए मैंने शादी से बहुत पहले ही सोच लिया था कि जब मेरे बच्चे होंगे तो यह इतहास दुबारा रीपीट नहीं होने दूंगा और मुझे फखर है कि मेरे सभी बच्चे और पोते और एक दोहती हम के बहुत करीब हैं और दोस्तों की तरह बातें करते हैं जिन में किसी किसम की झिजक के लिए कोई जगह नहीं है।

पिता जी को मैंने कोई खत नहीं डाला कि वोह मुझे इंग्लैण्ड बुला लें लेकिन मैं उन लड़कों से बातें करने लगा जो इंग्लैण्ड जाने के लिए पासपोर्ट बनवा रहे थे लेकिन किसी से कुछ हासल नहीं हो रहा था। कुछ ही दिनों बाद एक खबर सारे अखबारों के फ्रंट पेज पर आ गई ,” इंग्लैण्ड में इमिग्रेशन ऐक्ट “. कुछ कुछ तो हमें पता चल चुक्का था कि इंग्लैण्ड की पार्लिमेंट में एक बिल पेश हो चुक्का था जो बाहर से आने वालों की संख्य पर रोक लगाना था। अब यह बिल पास हो गिया था जिस के मुताबक १ जुलाई १९६२ से नया ऐक्ट बन गिया जिस के मुताबक सीधे जाना असंभव हो जाना था और इस के बाद वाउचर ले कर ही इंग्लैण्ड जाया जा सकता था।

इस वाउचर सिस्टम की क्या शर्तें थीं हम को कुछ पता नहीं था , बस हम को तो यह ही यकींन हो गिया था कि १ जुलाई के बाद जाया नहीं जा सकेगा। बहादर को मैं कुछ ना बताता लेकिन दूसरे लड़कों से पूछता रहता जो हाथ में फाइलें लिए कभी पुलिस स्टेशन को जाते कभी कचहरी में तसीलदार से मिलते। हर कोई लड़का एक बात ही बताता कि बाहर जाने के लिए स्पॉन्सरशिप की जरुरत थी। अजीब पैनिक की स्थिति में था मैं। मेरे हाथ कुछ न लगता। बहादर अक्सर बताता रहता कि उस के पेपर अब कपूरथले चले गए थे क्योंकि हमारे गाँव को कपूरथला डिस्ट्रिक्ट लगता था। कभी कहता उस के एक चाचा एक बहुत बड़ी पोस्ट पर थे और वोह उस के कागज़ क्लीअर करवा देंगे और पासपोर्ट जल्दी बन जाएगा और १ जुलाई से पहले पहले इंग्लैण्ड पौहंच जाएगा। मुझे बहादर की कोई बात अच्छी ना लगती। कहने को तो मैं उस की बातों का जवाब देता रहता लेकिन मेरा धियान तो कहीं और होता था।

एक दिन मैं फगवाड़े बंगा रोड पर जोगिन्दर किताबों वाले की दूकान से कोई किताब ले रहा था। किताब ले कर बाहर निकला तो इस दूकान से दो तीन दुकानें छोड़ कर एक ट्रैवल एजेंट का ऑफिस था जिस के दरवाज़े के ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ था जिस के ऊपर एक बड़े से एरोप्लेन की तस्वीर थी और लिखा हुआ था ,” यहाँ से सस्ती हवाई टिकटें मिलती हैं “. और भी बहुत कुछ लिखा हुआ था जो याद नहीं। यों तो यह ट्रैवल एजेंट का ऑफिस कई सालों से देखता आ रहा था लेकिन मैंने कभी धियान ही नहीं दिया था क्योंकि कभी जरुरत ही नहीं पडी थी। क्योंकि अब अच्चानक सर पे इंग्लैण्ड का भूत सवार हो गिया था और अभी तक कुछ हाथ भी नहीं आया था ,मैं एक मिनट सोच कर उस ऑफिस के अंदर चले गिया।

काउंटर पर एक जवान सरदार जी स्मार्ट कपड़ों में बैठे हुए थे और उन के सामने ही काउंटर पर एक बहुत बड़ी टाइप राइटर रखी हुई थी। मैंने जाते ही सरदार जी को सत सिरी अकाल बोला और सरदार जी ने भी मुझे सत सिरी अकाल में जवाब दिया और मेरी तरफ देखने लगा। मैंने कुर्सी पर बैठते ही सीधा सवाल किया ,” सरदार जी ! इंग्लैण्ड जाने के वास्ते कोई रास्ता बताइये “. सरदार जी ने मेरे हाथ में किताबें देख कर कहा ,” ऐसा कीजिये ,इंग्लैण्ड के किसी कालज में दाखला ले लीजिये। अगर आप को ऐडमिशन मिल जाए तो उस पर पासपोर्ट के लिए एप्लाई कर दीजिये ,पासपोर्ट मिल गिया तो हम से टिकट ले कर इंग्लैण्ड चले जाइए ” मैंने भी फट जवाब दिया ,” चलो तो मेरी तरफ से किसी कालज को ऐप्लिकेशन टाइप कर दो ” सरदार जी बोले ,” पोस्ट ऑफिस से एक एअर मेल लैटर ले आइये “.

पोस्ट ऑफिस पचीस तीस गज़ की दूरी पर ही था और दस मिनट में मैं एअरमेल लैटर ले आया। सरदार जी बोले ,” लो मैं लंडन में “फैरा डे हाऊस इन्ज्नीरिंग कालज” को ऐडमिशन के लिए लैटर टाइप कर देता हूँ ” और सरदार जी एक पुरानी बहुत बड़ी टाइपराइटर से टाइप करने लगे जिस के ऊपर दोनों तरफ इंक की टेप की रीलें थीं और हर लाइन खत्म होने के बाद टाइप राइटर के एक हैंडल को पुश करना पड़ता और तब नई लाइन शुरू हो जाती और मशीन से एक घंटी जैसी आवाज़ आती। कुछ ही मिनटों में खत लिख हो गिया और सरदार जी ने मुझे नीचे साइन करने को कहा। साइन करने के बाद उन्होंने लैटर बंद कर दिया और मुझे कहा कि इस को मैं पोस्ट कर दूँ। सरदार जी ने मुझे यह भी कहा कि जब इस लैटर का जवाब आ जाए तो मैं उन के पास ले आऊं और वोह सभी फ़ार्म भर देंगे। सरदार जी ने इस काम के पांच रुपय मांगे जो मैंने दे दिए और ऑफिस से बाहर आ गिया।

लैटर ले कर मैं सीधा पोस्ट ऑफिस गिया और लैटर बॉक्स में खत डाल दिया। हेम राज हलवाई की दूकान से मैंने आधा किलो लडू लिए और एक आशा की किरण लिए मैं गाँव की ओर बाइसिकल दौड़ाने लगा।

चलता ……

 

4 thoughts on “मेरी कहानी 63

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक किस्त। विदेश यात्राओं का अपना आकर्षण होता है। आपके मन में भी विदेश जाने की इच्छा थी जो स्वाभाविक है। अगली किस्त का इंतज़ार मुझे भी है।

    • विजय भाई ,धन्यवाद . वोह जवानी के दिन और एक दम बिदेश जाने की चाहत कुछ अजीब ही वक्त था लेकिन उस वक्त कितनी मुसीबतें होती थीं .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख बहुत अच्छा लगा। आपने अपनी मनः स्थिति का अच्छा वर्णन किया है जो स्वाभाविक है। अब आपके पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा है कि क्या उत्तर आता है और आपके इंग्लॅण्ड जाने का रास्ता किस प्रकार बनता है। हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई , लेख पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .पत्तर के जवाब का वर्णन आने वाली किश्त में होगा .

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