गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ज़िंदगी की राह में यूँ तो कई हमदम लगे
एक तिनका भी न आया, डूबने जब हम लगे

लाख रूठे आदमी उसको मना सकते हैं हम
कोई कर सकता है क्या जब रूठने मौसम लगे

दूर है मंजिल मगर हम पा ही लेंगे एक दिन
दिल में हो विश्वास तो फिर फ़ासला भी कम लगे

भूल मैं सकता नहीं हूँ पत्र उसका आखिरी
जब भी मैं उसको पढ़ूँ तो वह मुझे अलबम लगे

गाँव की मस्जिद बनाने में लगा है ‘रामसुख’
गाँव का मंदिर बनाने में ‘मियाँ असलम’ लगे

भावना जैसी हो वैसी मूर्ति आयेगी नज़र
दूध बच्चे को पिलाती माँ मुझे मरियम लगे

— डॉ कमलेश द्विवेदी

One thought on “ग़ज़ल

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    वाह
    अति सुंदर रचना

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