ग़ज़ल
कच्चे घरों में रिश्ते पक्के होते थे
हों जैसे भी परिवार अच्छे होते थे॥
सीखते थे उम्र भर गुण बुजुर्गों से
लिए दिल में दुलार बच्चे होते थे ॥
मिल-बाँट कर खाते थे आधी रोटी
थाली भर नेह अचार खट्टे होते थे ॥
चमक होती थी मटमैले चेहरों पर
खिले मन और प्यार सच्चे होते थे॥
ज़िंदगी रेंगती थी कदम दर कदम
मंजिलों पर एतवार पक्के होते थे ॥
बगीचा आँगन में हों या ना भी हों
अपनेपन के दमदार गुच्छे होते थे॥
दीवारें जोड़ो सीमेंट से अच्छा है “कल्प”
कच्चे मन के इजहार पक्के होते हैं ॥
— कल्पना मिश्रा बाजपेई