गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

अजनबी तुम रहो अजनबी की तरह
चाहते हैं तुम्हें जिंदगी की तरह ।

टूट जाए वफा का भरम गर कभी
रौशनी भी लगे तीरगी की तरह ।

क़िस्मतों में मेरी क्यों जुदाई लिखी
प्यार हमने किया था सभी की तरह ।

क्यों जहाँ का निराला चलन ये बना
नेकियां पल रही हैं बदी की तरह ।

दूर तुमसे रहा तो लगा ये मुझे
हर घड़ी है गुजरती सदी की तरह ।

सोच लो “धर्म” ये जिंदगी बेबफा
आदमी से मिलो आदमी की तरह ।

— धर्म पाण्डेय