कविता

जूठन में पड़ी थाली की व्यथा

दो पाँच हजार की खाने की थाली आज खुद शरमा रही है
देख हम मासूमो के हालात आज कितनाअकुला रही है
बन के अमीरों की शान कितना इतराती थी
महफिलों में सज कर अपनीशान बढाती थी
सेकड़ो पकवानो से सजती अनगिनत स्वाद थे मेरे
मुझे खाते खाते लोग लगा लेते थे कितने फेरे
मध्यम वर्ग में भी मेरी बहुत अहमियत थी
जितने ज्यादा पकवान उतनी ज्यादा खासियत थी
सैंकड़ो पकवानो में कितना तो खाते है
बाकी जो बचा मुझे झूठन में छोङ आते है
थोड़ी देर पहले जो में महफ़िल की शान थी
झूठन में पड़ी अब बिलकुल वीरान थी
याद आती है वो बात जो कहते है सब
गरीब की किस्मत में कहाँ थाली है अब
किस्मत गरीब की नहीं मेरी ख़राब है
गरीब की थाली में सजना अब मेरा ख़्वाब है
कम मिलता है तो कम खाता है
पर अन्न का अपमान उसे नहीं आता है
हे भगवन मुझ पर इतनी कृपा कर दे
महफ़िल की शान भले न हुई
भेजो वहीं मेरी इज्जत हो जहाँ
मुझे सिर्फ गरीब की झोली में भर दे

पुरुषोत्तम जाजू

पुरुषोत्तम जाजु c/304,गार्डन कोर्ट अमृत वाणी रोड भायंदर (वेस्ट)जिला _ठाणे महाराष्ट्र मोबाइल 9321426507 सम्प्रति =स्वतंत्र लेखन