कविता

***************झील***************

झील ऊपर से दिखती कितनी शांत
पर क्या वाकई है वो इतनी शांत,

कितने अक्स कितनी परछाईयां
कितनी ज़िन्दगी कितनी सच्चाइयाँ,
छुपाये अपने सीने में मौन
सोच रही है अपना है कौन ?

रोज़ बनता बिगड़ते बिम्ब प्रतिबिम्ब
उठती गिरती रौशनी की परछाईयां,
हवा के बहने पर सतह पर बहती लहरों का बनना बिगडना
पास से गुजरते लोगो का रेला
सैर को आये सैलानियों का मेला,
रोज़ी रोटी की तलाश में कश्तीवालों का उसे मथना
पर वो खड़ी है मौन
सोच रही है अपना है कौन?……..

वो तो किसी से कुछ नहीं मांगती
पर फिर भी उसे मिलता है,
कूड़ा कचरा गन्दगी
उसकी बेचारगी लोगो की आवारगी,
वो तो देती है
सुन्दरता शीतलता रोज़ी रोटी
कितने ही जीव उसमे पाते हैं जीवन,

पता नहीं कितने सालों से वो ऐसी ही है
और पता नहीं कितने साल,
ये मानव उसे अपने अस्तित्व में रहने देगा
बहुत असमंजस की स्तिथी है ,
प्रकृति द्वारा बनाई गई वह
आदमी द्वारा मिटा दी जाएगी,
इसलिए आज भी वह वही खड़ी है मौन
सोच रही है की अपना है कौन ?…………………………….प्रीती दक्ष

प्रीति दक्ष

नाम : प्रीति दक्ष , प्रकाशित काव्य संग्रह : " कुछ तेरी कुछ मेरी ", " ज़िंदगीनामा " परिचय : ज़िन्दगी ने कई इम्तेहान लिए मेरे पर मैंने कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा और आगे बढ़ती गयी। भगवान को मानती हूँ कर्म पर विश्वास करती हूँ। रंगमंच और लेखनी ने मेरा साथ ना छोड़ा। बेटी को अच्छे संस्कार दिए आज उस पर नाज़ है। माता पिता का सहयोग मिला उनकी लम्बी आयु की कामना करते हुए उन्हें नमन करती हूँ। मैंने अपने नाम को सार्थक किया और ज़िन्दगी से हमेशा प्रेम किया।