ग़ज़ल
अभी थका नहीं हूँ बहुत जान बाकी है,
जिंदगी का कड़ा इम्तिहान बाकी है
मुझे मोहलत ए खुदा और अता कर थोड़ी,
कि नापने को पूरा आसमान बाकी है
कटा नहीं हूँ मैं जड़ों से अभी पूरी तरह,
कि गांव का वो पुराना मकान बाकी है
सफेदी आ गई बालों में बचपना ना गया,
मेरे अंदर कहीं नन्हा शैतान बाकी है
वक्त-ए-रूख्सत तूने चूमा था मेरे माथे को,
उस मुलाकात का अब भी निशान बाकी है
ना तोल पाएगा हर शै तू रूपये पैसे में,
जहाँ में अब भी थोड़ा सा ईमान बाकी है
— भरत मल्होत्रा