ग़ज़ल : इस शहर में रक्खा क्या है!
इन्सानियत दम तोड़ती है हर गली चौराहे पर
ईंट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है
इक नक़ली मुस्कान ही चिपकी है हर चेहरे पर
दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत क्या है
मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं शहर में
यहां जो गिर चुका, उसे बचाने में रक्खा क्या है
शहर में बस भीड़ है, बदहबासी है अजीब सी
घर में केवल दीवारों के सिवा रक्खा क्या है
मौसम से बदलते हैं रिश्ते शहर में आजकल
इसमें फर्क अपनों और गैरों में रक्खा क्या है
— मदन मोहन सक्सेना
ग़ज़ल बहुत बढिया लगी .
आपका हृदयसे आभार
अच्छी ग़ज़ल !
आपकी सराहना मेरे लिये किसी पुरस्कार से कम नहीं है…..तहे दिल से आपका शुक्रगुजार हूँ, हार्दिक आभार