ग़ज़ल
दूर जाएँ तो कसक बढ़ जाए,
पास आएँ तो ललक बढ़ जाए।
उनके देखे से बढ़े आँखों का नूर,
और चेहरे की चमक बढ़ जाए।
शक – ओ – शुब्हात से टूटें रिश्ते,
ऐतिबारी से लचक बढ़ जाए।
टूट कर फिर है बिखरने का डर,
बर्तनों में जो खनक बढ़ जाए।
तौबा टूटे तो कहीं यूँ ना हो,
और पीने की चसक बढ़ जाए।
ख्वाहिशों का है सफर ये, प्यारे,
पा तले जैसे सड़क बढ़ जाए।
हुस्न बे – शर्मो – हया, ‘होश’, है यूँ,
जैसे खाने में नमक बढ़ जाए।
दूर जाएँ तो कसक बढ़ जाए,
पास आएँ तो ललक बढ़ जाए। वाह ,शुरुआत ही धमाकेदार !
बहुत धन्यवाद